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* तारण-वाणी *
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तन चेतन विवहार एक से, निहचे भिन्न भिन्न हैं दोइ । तन की थुति विवहार जीव थुति, नियत दृष्टि मिथ्या थुति सोइ ॥ जिन सो जीव, जीव सो जिनवर, तन जिन एक न माने कोइ ।
ता कारन तन की संस्तुति सों, जिनवर की संस्तुति नहिं होइ ॥३०॥ इसका सब भावार्थ तो आप समझ ही गये होंगे, देखिए इसमें यह खुलासा कहा है कि 'नियत दृष्टि मिथ्या थुति सोइ' इसका अर्थ है कि निश्चयदृष्टि से तन की स्तुति करना मिथ्याम्नुति है अर्थात् तन की स्तुति करने से जिनवर की स्तुति नहीं होती । समयसार की मूलगाथायें व उनकी भाषा टीका
इण मण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणितु मुणी । मण्णदि हु संधुदो वंदिदो मए केवली भयवं ॥२८॥ तं णिच्छयेण जुजदि ण सरीर गुणाहि होति केवलिणो ।
केवलि गुणो थुणदि जो सो तच्च केवलिं थुणदि ॥२९॥ अर्थ-जीव से भिन्न इस पुद्गलमयी देह की स्तुति करके साधु असल में ऐसा मानता है कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की और वंदना की ॥२८॥ वह स्तवन निश्चय (वास्तव) में ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के गुण केवली के नहीं । जो केवली के गुणों की स्तुति करता है वही परमार्थ से केवलो की स्तुति करता है ॥२६॥
अत: अब हम आचार्य वाक्यों को माने या संसार की अपनी २ मनगढंत बातों को । बहुत से भाई कहते हैं कि बालकों को जिस तरह प्रथम कक्षा में आ माने श्राम, इ मानै इमली, पढ़ाई जाती है इसी तरह सर्व प्रथम हमें-पहली कक्षा की तरह प्रतिमापूजन कही गई है। जो सबसे पहिले यह बताओ कि कौन से ग्रंथ में यह बात कही है, तथा बालकों को प्रा माने आम इ माने इमली एक दिन ही पढ़ाया जाता है या जन्म भर । अथवा क्या आप एसा मानते हैं कि एक जन्म में पहली कक्षा और दूसरे जन्म में दूसरी, इस तरह से धीरे धीरे ५०, १०० जन्मों में हम केवलज्ञानी हो जावेंगे, तो क्या आपकी हमारी सब की यह मनुष्य पर्याय पहली हो है या अनन्त बार मिल चुको, और यदि इसके पहिले भी अनेक बार मनुष्य पर्याय और जैनधर्म मिल चुका तो फिर अब तो सबसे ऊंची कक्षा में होना था ? अथवा क्या ऐसा मानते हो कि जिस तरह यह मनुष्य पर्याय तथा जैनधर्म अभी मिला है इसी तरह लगातार मिलता जायगा ? अतएव यह कहना बिल्कुल नहीं बनता कि पहली कक्षा है। हां, यदि ऐसा भी दिखाई देता कि चलो कुछ अनपढ़ बालक बालिकाये पहिली कक्षा की भाँति प्रतिमा पूजते हैं और जो बिल्कुल ही अबोध छोटे छोटे बच्चे हैं वे मात्र दर्शन ही करते हैं बाकी तो सब आगे की कक्षाओं में आ चुके हैं सो भी नहीं।