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* तारण -राणी *
कोई कहते हैं कि अवलम्बन तो होना ही चाहिये । तो क्या वर्तमान में देश विदेश की संख्या लगभग दो अरब है यानी (दो सौ करोड़) जिसमें ७५ फीसदी से || अरब यानी (डेढ़ सौ करोड़) मनुष्य अमूर्ति-पूजक हैं और २५ फीसदी मनुष्य मूर्ति पूजक हैं तो क्या अमूर्ति-पूजक डेढ़ अरब बिना अवलंबन के भगवान की भक्ति पूजा-गुगानुवाद नहीं कर पाते होंगे ? आप कहें सब संसार की और सब धर्मो की बातों से हमें क्या करना है, हमें तो अपने ही जैनधर्म से मतलब है, तो सुनिये कि अपना जैनधर्म भी क्या कहता है
दोहा - तजि विभाव हूजे मगन, शुद्धात्तम पद मांहि ।
एक मोक्षमारग यहै, और दूसरी नांहिं ॥ ११८ ॥
जे विवहारी मूढ़ नर, पर्यय बुद्धी जीव । तिनकें बाह्य क्रिया ही को, है अवलम्ब सदी || १२१॥
उपरोक्त दोनों दोहों का अर्थ समझ में आ ही गया होगा, कि वाह्य क्रियाओं के अवलंबन से कदापि मोक्षमार्ग नहीं बनता जब तक कि शुद्धात्मानुभव न किया जाय । यदि कदाचित हममें इतनी योग्यता नहीं कि आत्मानुभव कर सकें तो हमें भगवान के अनंतचतुष्टयरूप गुणों की आराधना करना चाहिये न कि उनके शरीर और शरीर की प्रतिमा की ।
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् ।
न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ पं० आशाधर कृत श्रावकाचार
अर्थ - जो भक्तिपूर्वक शास्त्र की पूजा करते हैं, वे मानो नियमपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की ही पूजा करते हैं । क्योंकि जिनेन्द्र भगवान ने शास्त्र और देव में निश्चय करके कुछ भी भेद नहीं कहा है । यदि कदाचित् ऐसी भावना रहती हो कि समोशरण में पहुँचकर भगवान की वाणी सुनते और उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करते तो आचार्य कहते हैं कि हे भव्यो ! शास्त्र की भक्तिपूर्वक पूजा करो क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेव में और शास्त्र में जबकि कुछ भी भेद नहीं और शास्त्रों में ही भगवान की वाणी का उपदेश भी मिलता है तब एक पंथ दो काम पूरे होते हैं । यह भी ध्यान रहे कि भक्तिपूर्वक पूजा का अर्थ यह जानना कि भक्तिभाव सहित शास्त्रों के उपदेश को सुनना और शक्ति अनुसार पालन करना, यथायोग्य उनकी विनय करना, विनयपूर्वक उठाना रखना, न कि द्रव्य से पूजा करना । इसी सम्बन्ध में और भी कहते है कि
संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूड़ामणिः । तदुवाचः परमासतेऽत्र अधुना साक्षाजिनः पूजितः || सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तेषां समालम्बनम् । तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाजिनः पूजितः ॥