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* तारण-वाणी *
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गहरी गंभीर खाई ताकी उपमा बताई, नीचो करि आनन पाताल जल पियो है। ऐसी है नगर या नृप कौ न अंग कोड, यों ही चिदानन्द सों शरीर भिन्न कियो है || २ ||
इसमें बताया है कि - जैसे इतना शोभायमान गढ़ व नगर का वर्णन करने पर भी इसमें राजा का बिल्कुल ही वर्णन न हुआ ठीक इसी प्रकार श्री तीर्थंकर भगवान के शरीर तथा समोशरण को चाहे जितनी महिमा का वर्णन व स्तुति करो, इसमें उनकी आत्मा की जो वास्तव में भगवान है और जिस आत्मा को सिद्धपद पाना है उसकी रखमात्र भी स्तुति न होगी । तात्पर्य यह कि जब साक्षात् तोर्थंकर के शरीर की स्तुति करने पर भी भगवान की स्तुति न कहलाई तब प्रतिमा को अवलोकन करते हुये स्तुति करने पर भगवान की स्तुति कैसे मानी जा सकती है । अतः भगवान की सच्ची स्तुति कैसे होगी ? इसे बताते हैं । तीर्थंकर के निश्चयस्वरूप की स्तुति -
लोकालोक के सुभाष प्रतिभा से सब, जगी ज्ञानशक्ति विमल जैसी आरसी । दर्शन उद्योत लियो अंतराय अन्त कियौ गयौ महामोह भयौ महाऋषी सन्यासी सहज जोगी जोग सों उदासी जामें, प्रकृति पचासी लग रहीं जरि छारसी । सोहै घट मन्दिर में चेतन प्रकट रूप, ऐसौ जिनराज ताहि वन्दत बनारसी ||२६||
हे तीर्थंकर भगवान ! आपकी जिस आत्मा में इतने गुणों का प्रकाश हो गया है, ऐसी जो आपकी आत्मा चेतनरूप आपके घट में प्रगट होकर शोभायमान हो रही है उस जिनराज स्वरूप आपकी आत्मा की मैं बनारसीदास वन्दना करता हूँ ।
भव्यो ! सच्ची वन्दना भगवान की यह है । समझो कि भगवान का शरीर भी भगवान नहीं है, उनकी आत्मा ही भगवान है, उस आत्मा की वन्दना करो। अब आप विचार करो कि आत्मा की क्या कोई मूर्ति बन सकती है ? नहीं बन सकती । वन्दना का अर्थ है विनय भक्तिपूर्वक गुणानुवाद गाना | क्या गुणानुवाद गाने में उन गुणों को अथवा उन गुणों वाले भगवान के सामने होने की आवश्यकता है कि जब वे सामने ही बैठे हों तब गुणानुवाद गाये जा सकते हैं ? नहीं, वे अरहन्त भगवान जब समोशरण में विराजमान थे, तब सामने पहुँचकर सभी मानव, देव उनकी भक्ति करते करते हुए गुणानुवाद गाते थे, अब वे सिद्ध होकर मोक्ष पधार गए, तो हम आप गुणानुवाद गाते रहें, यही हमारा कर्तव्य है नहीं बन सकती है ।
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क्या गुणों की मूर्ति बन सकती है
तात्पर्य यह है कि न मूर्ति बन सकती है और न मूर्ति की कोई आवश्यकता ही है । देखिये नाटक समयसार में स्पष्ट कहा है कि