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* तारण-वाणी *
तीर्थंकर के शरीर अथवा पुण्य वैभव की स्तुति
तीर्थकरों की स्तुति नहीं। तीर्थकर
जाके देह युति सों दसों दिशा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं । जाको रूप निरखि थकित महा रूपवंत, जाके वपु वासमौ सुवास और लूके हैं । जाकी दिव्यध्वनि सुनि श्रवण को सुख होत, जाके तन लछन अनेक आय ढके हैं । तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहचे निरवि सुद्ध चेतन मों चूके हैं ।।२५।।
(जीवद्वार) जिनराज का यथार्थरूप
जिनपद नाहिं शरीर को, जिनपद चेतन मांहिं ।
जिनवर्णन कछु और है, यह जिनवर्णन नाहि ॥२७॥ जामें बालपनो, तमनापा, वृद्धपनो नाहि, अायु परजत महारूप महाबल है । बिना ही यतन जाके तन में अनेक गुन, अतिमै विराजमान काया निरमल है। जैसे विनु पवन समुद्र अविचल रूप, तैसे जाको मन अरु आसन अचल है। एसो जिनराज जयवंत होउ जगत में, जाके शुभगति महां सुकृति का फल है ।।२६॥
धातु-पाषाण की मूर्ति की स्तुति, पूजा व्यवहारस्तुति तथा साक्षात भगवान तीर्थकर को स्तुति-पूजा निश्चयस्तुति पूजा नहीं है। यह उपरोक्त बताई हुई स्तुति व्यवहारस्तुति है, जबकि निश्चयस्तुति आगे कहेंगे। यानी समयसारजी प्रन्थ में श्री कुन्दकुन्द स्वामी के कहे अनुसार 'नाटक समयसार जी' में बनारसीदास जी कहते हैं कि
यद्यपि शरीर को जिनपद नहीं है, जिनपद तो चेतन आत्मा में है । हे तीर्थकर भगवान ! फिर भी आपकी स्तुति हमारे लिये सुकृत पुण्यफल देने वाली है । यद्यपि यह मैं जानता हूँ कि
आपके शरीराश्रित जितने भी गुणों की महिमा है उस महिमा की स्तुति से जिनस्तुति न होगी क्योंकि जिनगुण वर्णन तो कुछ और ही है कि जिसका सब सम्बन्ध अापकी आत्मा से है, शरीर से नहीं । तात्पर्य यह कि साक्षात् तीर्थकर भगवान के सामने प्रत्यक्ष में या परोक्ष में उनके शरीराश्रित गुणों की महिमा का-समोशरण की महिमा का वर्णन भक्तिभाव से करना व्यवहारस्तुति करना है और उनकी आत्मा के अनन्त चतुष्टय गुणों की स्तुति निश्चयस्तुति है ।
ऊँचे ऊँचे गढ़ के कंगूरे यों विराजत हैं, मानौ नभलोक गीलवे को दांत दियो है । सोहे चहुंओर उपवन की सघनताई, घेरा करि मानो भूमिनोक घेर लियो है ।।