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=तारण-वाणी
उच्चारण ऊर्ध शुद्धं च, शुद्ध तत्वं च भावना । पंडितो पूज आराध्यं, जिन समयं च पूजतं ॥२२॥ ऊर्ध्व-प्रणायक प्रणव मंत्र का, करना मुख से उच्चारण । अपने विमल हृदय-मन्दिर में, करना शुद्ध भाव धारण ॥ यही एक पंडित-पूजा है, पूज्यनीय शिव सुखदाई ।
आत्मा का पूजन ही, है जिन-पूजन हे भाई ॥ अपने मुख से बार बार 'ओम' का उच्चारण करना और सदैव शुद्धात्मा की भावनाओं में लीन होना यही वास्तव में एकमात्र पंडितपूजा ( पंडितों के करने योग्य पूजा ) होती है, और इसी तरह की ज्ञान-पूजा ही वास्तव में वह पूजा होती है जिसको शास्त्रों में देवपूजा या जिनपूजा कही गई है। हे पंडित अनो! ऐसी ही ज्ञान-पूजा या आत्म-पूजा करो, ऐसी ही भक्ति और आराधना करो, यह पूजा चारों संघ को उपयोगी है।
पूजतं च जिनं उक्तं, पंडितो पूजतो सदा। पूजतं शुद्ध साधं च, मुक्ति गमनं च कारणं ॥२३॥ आत्मद्रव्य की पूजा करता, बन जो जिन-वच-अनुगामी । वही एक जग में करता है, पंडितपूजा शिवगामी ॥ शुद्ध आत्मा ही भव- जल से, तरने का बस है साधन ।
मुक्ति चाहते हो यदि तुम तो, करो इसी का आराधन ॥ श्री जिनेन्द्र के वचनों का अनुयायी बनकर जो आत्म-द्रव्य की, अत्म-गुणों की पूजा करता है, वही वास्तव मे एकमात्र पंडित-पूजा है, जबकि दूसरी पूजायें पुण्य तथा पाप बंध करके संसार में ही भटकाया करती हैं । जब कि यह आत्म-पूजा या आत्म-अर्चना ज्ञानी को, विवेकवान पूजक को नियम से भवसागर से पार उतारकर मुक्ति-नगर में पहुँचा देती है।