________________
तारण-वाणी
१३
दृष्टतं शुद्ध पदं सार्ध, दर्शन मल विमुक्तयं । ज्ञानं मर्य सुद्ध सम्यक्त्वं, पंडितो दृष्टि सदा बुधैः : सप्त तत्व का जो निदान है, अगम, अगोचर, मनभावन । उसी 'ओम्' से मंडित दिखता, बुधजन को चेतन पावन ॥ आत्म-देश में जहां कहीं भी, जाते उसके मन-लोचन । उन्हें, वहीं दिखता है निर्मल, सम्यग्दर्शन दुख-मोचन ॥
जो मनुष्य ज्ञान-नीर में निमग्न रहा करना है, स्नान करता रहता है उसकी दृष्टि जहाँ तहाँ शुद्धात्मा या ओम् के ही दर्शन करती रहती है। आत्मा के प्रदेशों में उसे सम्यक्त्व-सम्यक्त्वकी ही लहरें दिखाई देती हैं और वे लहरें पवित्र पवित्रतम जैसे जल की चमकती हुई; उनमें रचमात्र भी कोई विकार नहीं। उन पवित्रतम लहरों में उसे अपनी आत्मा का दर्शन ठीक परमात्मा के जैसा होता है, जिससे उसकी यह तलाश समाप्त हो जाती है कि भगवान का दर्शन कहां मिलेगा ! ठीक ही है, जिसे अपने आपमें ही मिल गया, उसे फिर बाहर में तलाश क्यों ?
वेदका अस्थिरश्चैव, वेदत निरग्रंथं ध्रुवं । त्रैलोक्यं समयं शुद्ध, वेद वेदंति पंडितः ॥२१॥ जो पंडित कहलाता है या, होता जो वेदान्त-प्रवीण । अग्र ज्ञान को कर उसमें वह, सतत रहा करता तल्लीन ॥ तीन लोक का ज्ञायक है जो, ग्रन्थहीन, ध्रुव अविनाशी ।
उसी आत्म का अनुभव करता, नितप्रति ज्ञान-नगर-वासी ॥ ज्ञान नगर निवासी पंडित अपने हृदय मन्दिर की वेदी में विराजमान निग्रन्थ, ध्र व, वीतराग स्वभावी अपनी आत्मा को जो कि पंचज्ञान का निधान है उसे ही वीतराग सर्वज्ञ की समकक्ष अपनी निश्चय दृष्टि में अवलोकन करता है, वेद का जो अग्र-सार उसे भी वह उसी में पाता है, अतः एकमात्र उसकी तन्मयता हो उसे प्रिय लगती है।