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तारण-वाणी
दृष्टतं शुद्ध समयं च, सम्यक्त्वं शुद्ध ध्रुवं । ज्ञानं मयं च संपूर्ण, ममलदृष्टि सदा बुधैः ॥१८॥ ज्ञान-नीर के अवगाहन से, असत् भाव मिट जाता है । परम शुद्ध सम्यक्त्व मात्र ही, फिर हिय में दिख पाता है ॥ शुद्ध बुद्ध ही दिखते हैं फिर, आंखों में प्रत्येक घड़ी । दिखता है बस यही ज्ञान की, अन्तर में मच रही झड़ी ॥
ज्ञान नीर में स्नान करने से मिथ्यात्वभाव समूल नष्ट हो जाता है और फिर जहाँ तहाँ ज्ञानी को सम्यक्त्व की ही झांकियों दिग्वलाई पड़ती हैं । उसकी दृष्टि जहां जाती है वहां उसे फिर शुद्धात्मा की ही छवि के दर्शन होते हैं, जिस झांकी की झलक के सामने अब उसे कृत्रिम झांकियों के प्रति प्रेम अथवा मान्यता नहीं रह जाती और उसे आठों पहर ऐसा मालूम पड़ता है मानों अन्तर में ज्ञान की झड़ी लगरही है।
लोकमढ़ न दृष्टते, देव पाखंड न दृष्टते । अनायतन मद अष्टं च, शंकादि अष्ट न दृष्टते ॥१९॥ ज्ञान-नीर से मिट जाता है, तीन मूढ़ताओं का ताप । अष्ट मदों का मन-मन्दिर में, फिर न शेष रहता सन्ताप ॥ छह अनायतन डरते हैं फिर, नहीं हृदय में आते हैं ।
अष्ट दोष भी तस्कर नाई, देख इसे छिप जाते हैं ॥ ज्ञानरूपी जल में स्नान करने से देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डमूढ़ता, इन तीनों का नाश हो जाता है। अज्ञानपूर्वक किये हुये ६ कर्मों में सुधार की लहर पैदा हो जाती है, आठों मद विला जाते हैं और शंकादिक अष्ट दोषों के भी पंख लग जाते हैं। तात्पर्य यह कि आत्म-सरोवर में स्नान करने से हृदय में प्रगाढ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है ।