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-तारण-वाणीः
अदेवं अज्ञान मूढं च, अगुरुं अपूज्य पूजन । मिथ्यात्वं सकल जानते, पूजा संसार भाजनं ॥२४॥ 'देव' किन्तु देवत्वहीन जो, वे 'अदेव' कहलाते हैं । वही 'अगुरु' जड़, जो गुरु बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं । ऐसे इन 'अदेव' 'अगुरों' की, पूजा है मिथ्यात्व महान् । जो इनकी पूजा करते थे, भव भव में फिरते अज्ञान ॥
ज्ञान-चेतना रहित और देवत्वपने से सर्वथा हीन ऐसे म्वनिर्मित अदेवों को देव मानकर पूजना तथा गुरु के समान वेप बना लेने पर भी गुरु के गुणों से कोसों दूर रहते हैं पसे कुगुरु या अगुरुओं को गुरु के समान मानना, पूजना केवल मिथ्यात्व ही होता है । ऐसे अदेवों और अगुरुओं की पूजा पजक का मंगल तो नहीं करती, हाँ उन्हें संसार सागर में बार बार भटकाया ही करती है, अनन्तकाल पर्यन्त दुःखों का ही भोग कराती है ।
तेनाह पूज शुद्धं च, शुद्ध तत्व प्रकाशकं । पंडितो बंदना पूजा, मुक्तिगमनं न संशयः ॥२५॥
सप्त तत्व के पुजों का नित, करता है जो प्रतिपादन । वही ब्रह्म है पूज्य, विज्ञगण ! करो उसी का आराधन ॥ अगुरु, अदेवादिक की पूजा, आवागमन बढ़ाती है ।
आत्म-अर्चना, आत्म-बंदना, मुक्ति नगर पहुँचाती है ॥ जो सप्त तत्वों के पुंजों का नित्यप्रति प्रतिपादन करता है, उन्हें प्रकाश में लाता है, हे विज्ञजन ! तुम उसी शुद्धात्मा का पाराधन करो । गुरु, अदेवों की पूजा केवल संसार को ही बढ़ाती है, किन्तु आत्म-अर्चना और आत्म-वन्दना इस संसार सागर को सुखाकर मोक्ष नगर के मार्ग को स्पष्ट कर देती है।