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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६
तत्र त्वतलादिप्रत्ययाभिव्यङ्गयस्य सङ्गृहीतसकलावान्तरजा तिलक्षणव्यक्तिभेदस्य सामान्यस्योद्भवात् । इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिभेदाभावे जातेरनुद्भूतत्वाद् गौणोऽयं युष्मत्परिकल्पित इहेतिप्रत्ययसाध्यः समवायत्वाभिसम्बन्धः तत्साध्यश्च समवाय इति ॥
तदेतद् न विपश्चिचमत्कारकारणम् । यतोऽत्रापि जातिरुद्भवन्ती केन निरुध्यते । व्यक्तेरभेदेनेति' चेत् । न । तत्तदवच्छेदकवशात् तत्तद्भेदोपपत्तौ व्यक्तिभेदकल्पनाया दुर्निवारत्वात् । अन्यो घटसमवायोऽन्यश्च पटसमवाय इति व्यक्त एव समवायस्यापि व्यक्तिभेद इति, तत्सिद्धौ सिद्ध एव जात्युद्भवः । तस्मादन्यत्रापि मुख्य एव समवायः इह प्रत्ययस्योभयत्राप्यव्यभिचारात् ॥ तदेतत्सकलं सपूर्वपक्षं समाधानं मनसि निधाय सिद्धान्तवादी प्राह । न गौणभेद इति । to इति योऽयं भेदः स नास्ति । गौणलक्षणाभावात् । तल्लक्षणं चेत्थमाचक्षते - " अव्यभिपारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च । विपरीतो गौणोऽर्थः सति मुख्ये धीः कथं गौणे " ॥ तस्माद् धर्मधर्मिणोः सम्बन्धेन मुख्यः समवायः, समवाये च समवायत्वाभिसम्बन्धे गौण इत्ययं भेदो नानात्वं नास्तीति भावार्थः ॥
किञ्च योऽयमिह तन्तुपु पट इत्यादिप्रत्ययात् समवायसाधनमनोरथः स खल्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथम् । इह तन्तुषु पट इत्यादेर्व्यवहारस्या लौकिकत्वात् । पांशुलपादा
होता है, और यह समवाय पृथिवी आदिको सम्पूर्ण अवान्तर जातिरूप व्यक्तिभेदको सामान्यसे ग्रहण करता है । परन्तु समवायत्वमें समवाय एक है, इसलिए उसमें व्यक्तियोंके भेदका अभाव है, अतएव वह सामान्यका उत्पादक नही । अतएव आप लोगोंने जो कहा था कि 'इन समवायियोंमें समवाय रहते हैं, क्योंकि इन समवायियोंमं समवाय है ऐसा ज्ञान होता है' -सो यह गौण समवाय है ।
जैन -- यह मान्यता ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार आप लोग पृथिवीमें मुख्य समवायसे रहनेवाले पृथिवीत्वको सामान्य (जाति) का ग्राहक मानते हैं, उसी प्रकार समवायमें रहनेवाले समवायत्वको भी सामान्यका ग्राहक क्यों नहीं मानते ? यदि आप लोग कहें कि यहाँ व्यक्तिका भेद नहीं है - अर्थात् समवाय एक ही है, इस कारण समवाय में जातिका अभाव है - तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि यहाँ भी अमुक अवच्छेदकोंसे यह घट समवाय है, यह पट- समवाय है, इस प्रकार समवायके भी व्यक्तिभेद सिद्ध हैं। क्योंकि घटत्वावच्छेदकसे होनेवाला घटसमवाय पटत्वावच्छेदकसे होनेवाले पटसमवायसे भिन्न है । इसलिए समवायमें भी व्यक्तिका भेद सिद्ध होता है । अतएव जिस प्रकार पृथिवीमें पृथिवीत्व मुख्य समवाय सम्बन्धसे रहता है, उसी तरह समवायमें समवायत्व भी मुख्य- समवाय सम्बन्धसे मानना चाहिए, क्योंकि इहप्रत्ययकी दोनों जगह समानता है । तथा, वैशेषिकोंद्वारा समवायमें गौणरूपसे स्वीकृत समवायत्व भी नहीं बन सकता। क्योंकि यहाँ गौणका लक्षण ही ठीक नहीं बैठता, कारण कि,
" व्यभिचारी, विकल, साधारण और बहिरंग अर्थको गौण कहते हैं । मुख्य अर्थके रहनेपर गौण बुद्धि नहीं हो सकती । "
समवायमें समवायत्व माननेमें मुख्य अर्थ मौजूद है, इसलिए समवायका गौणरूप नहीं बन सकता । अतएव धर्म और धर्मीका सम्बन्ध मुख्य समवायसे होता है, तथा समवाय और समवायत्वका सम्वन्ध गौण - समवाय है - समवायका यह मुख्य और गौण भेद मानना ठीक नहीं है ।
तथा 'इन तन्तुओंमें पट है - इस प्रत्ययसे समवायकी सिद्धि करना नपुंसकसे पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छाके समान है । क्योंकि 'इन तन्तुओं में पट है' यह व्यवहार लोकसे वाधित है, कारण कि साधारणसे साधारण
१. व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं संकरोऽथानवस्थितिः । रूपहानिरसम्वन्धो जातिबाधकसंग्रहः ॥ - इति किरणावल्यामुदमनाचार्यकृतायाम् ।