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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६] स्याद्वादमञ्जरी अथ कथं समवायस्य न ज्ञाने प्रतिभासनम् यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनम् । इह प्रत्ययाश्चानुभवसिद्ध एव । इह तन्तुषु पटः, इहात्मनि ज्ञानम् , इह घटे रूपादय इति प्रतीतेरुपलम्भात् । अस्य च प्रत्ययस्य केवलधर्मधर्म्यनालम्बनत्वादस्ति समवायाख्यं पदार्थान्तरं तद्धेतुरिति पराशङ्कामभिसन्धाय पुनराह । 'इहेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्ताविति ।' इहेदमिति-इहेदमिति आश्रयाश्रयिभावहेतुक इहप्रत्ययो वृत्तावप्यस्ति--समवायसंबन्धेऽपि विद्यते। चशब्दोऽपिशब्दार्थः। तस्य च व्यवहितः सम्बन्धस्तथैव च व्याख्यातम् ।। इदमत्र हृदयम् । यथा त्वन्मते पृथिवीत्वाभिसंबन्धात् पृथिवी, तत्र पृथिवीत्वं पृथिव्या एव स्वरूपमस्तित्वाख्यं नापरं वस्त्वन्तरम् । तेन स्वरूपेणैव समं योऽसावभिसम्बन्धः पृथिव्याः स एव समवाय इत्युच्यते । “प्राप्तानामेव प्राप्तिः समवायः" इति वचनात् । एवं समवायत्वाभिसम्बन्धात् समवाय इत्यपि किं न कल्प्यते । यतस्तस्यापि यत् समवायत्वं स्वस्वरूपं, तेन सार्धं सम्बन्धोऽस्त्येव । अन्यथा निःस्वभावत्वात् शशविषाणवदवस्तुत्वमेव भवेत् । ततश्च इह समवाये समवायत्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव । ततो यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायेन समवेतं, एवं समवायेऽपि समवायत्वं समवायान्तरेण सम्बन्धनीयम् , तदप्यपरेण, इत्येवं दुस्तरानवस्थामहानदी। एवं समवायस्यापि समवायत्वाभिसम्बन्धे युक्त्या उपपादिते साहसिक्यमालम्ब्य पुनः पूर्वपक्षवादी वदति । ननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वाद्यभिसम्बन्धनिबन्धनं समवायो मुख्यः । त्वावच्छेदक-समवायके नाश होनेसे पटत्वावच्छेदक-समवायका नाश नहीं होता, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इस तरह प्रत्येक वस्तुके साथ समवायके स्वभावका भेद होनेसे समवाय अनित्य ठहरेगा। वैशेषिक-आप कैसे कह सकते हैं कि समवायका ज्ञान नहीं होता? 'इहप्रत्य' ( इन तन्तुओंमें पट है ) समवायके ज्ञान कराने में प्रवल साधन है 'इन तन्तुओंमें पट है,' 'इस आत्मामें ज्ञान है,' 'इस घटमें रूप आदि हैं'-यह 'इहप्रत्यय' अनुभवसे सिद्ध है। यह 'इहप्रत्यय' केवल धर्म और धर्मीके आधारसे नहीं होता, इस कारण धर्म-धर्मीसे भिन्न 'इहप्रत्यय' का हेतु समवाय अवश्य मानना चाहिए । इस प्रकार दूसरोंकी शंकाको लक्ष्य करके यहाँ फिरसे कहा गया है-'यहाँ यह है, इस प्रकारकी बुद्धि समवायमें होती है।' 'यहाँ यह है' इस प्रकारके आश्रयाश्रियभावके कारण व्यक्त होनेवाला इहप्रत्यय समवायमें भी होता है। 'च' शब्दका अर्थ 'अपि' है । इसका सम्बन्ध व्यवहित है। जैन-धर्म ( आश्रयी) और धर्मी (आश्रय) में 'इहप्रत्यय' हेतु समवाय सम्बन्ध ठीक नहीं बनता। क्योंकि धर्म और धर्मीका हेतु 'इहप्रत्यय' समवाय सम्बन्धमें भी रहता है। वैशेषिकोंके मतमें पृथिवीत्वके सम्बन्धसे पृथिवीका ज्ञान होता है, तथा पृथिवीत्व ही पृथिवीका अस्तित्व नामक स्वभाव है। इसी पृथिवीत्वके साथ पृथिवीके सम्बन्धको समवाय कहते हैं। कहा भी है-"प्राप्त पदार्थोंकी प्राप्ति ही समवाय है।" इसी तरह वैशेषिक लोग समवायत्वके सम्बन्धसे ही समवाय क्यों नहीं मानते ? क्योंकि समवायत्व समवायका स्वभाव है, और समवायका समवायत्वके साथ सम्बन्ध है। अन्यथा यदि समवायत्वको समवायका स्वभाव नहीं मानोगे, तो समवायको स्वभावरहित मानना होगा, और स्वभावरहित होनेसे खरगोशके सींगकी तरह समवाय अवस्तु ठहरेगा। इसलिए 'समवायमें समवायत्व है'-यह 'इहप्रत्यय' समवायमें भी युक्तिसे सिद्ध होता है। अतएव जिस प्रकार पृथिवीमें पृथिवीत्व समवाय सम्बन्धसे है, वैसे ही समवायमें समवायत्व दूसरे समवायसे, दूसरेमें तीसरेसे-इस प्रकार एक समवायकी सिद्धि में अनन्त समवाय माननेसे अनवस्था दोष आता है। इस प्रकार समवायका भी समवायत्वके साथ होने वाले सम्वन्धकी युक्तिसे सिद्धि की जानेपर साहसका अवलम्बन करके पूर्वपक्षवादी ( वैशिषक ) पुनः कहता है : समवाय मुख्य और गौणके भेदसे दो प्रकारका है। पृथिवीमें पृथिवीत्व मुख्य-समवाय सम्बन्धसे रहता है। इस मुख्य-समवायका ज्ञान 'त्व', 'तल' आदि प्रत्ययोंसे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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