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श्रोमदाजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ ___एवमुक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठते । वृत्त्यास्तीति-अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहततः सन्वन्धः समवायः। सच समवयनात समवाय इति द्रव्यगुणकमंसामान्यविशेपेषु पञ्चमु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिरिति चाख्यायते । तया वृत्त्या समवायसम्बन्धेन, तयोर्धर्मधनिणोः इतरेतरविनिर्लुण्ठितत्त्वेऽपि धर्मधर्मिव्यपदेश इष्यते । इति नानन्तरोक्तो दोप इति ।।
अत्राचार्यः समाधत्ते । चेदिति । यद्येवं तव मतिः सा प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्ता । यतो न त्रितयं चकास्ति । अयं धर्मी, इमे चास्य धर्माः, अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं समवाय इत्येतत् त्रितयंवस्तुत्रयं, न चकास्ति-ज्ञानरिपयतयान प्रतिभासते । यथा किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसन्धायक रालादिद्रव्यं तस्मात् पृथक् तृतीयतया प्रतिभासते, नैवमत्र समवायस्यापि प्रतिभासनम् , किन्तु द्वयोरेव धर्मधर्मिणोः इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति भावार्थः ।।
किञ्च, अयं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोऽमूर्तश्च परिकल्पते । ततो यथा घटाश्रिताः पाकजरूपादयो धर्माः समवायसम्बन्धेन घटे समवेतास्तथा किं न पटेऽपि । तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् ।।
यथाकाश एको नित्यो व्यापकोऽमूर्तश्च सन् सर्वैः सम्वन्धिभिर्युगपदविशेषेण सम्बध्यते, तथा किं नायमपीति । विनश्यदेकवस्तुसमवायाभावे च समस्तवस्तुसमवायाभावः प्रसज्यते । तत्तदवच्छेदकभेदाद् नायं दोष इति चेत् , एवमनित्यत्वापत्तिः । प्रतिवस्तुस्वभावभेदादिति ।
वैशेपिक-हम वृत्ति ( समवाय ) से धर्म और धर्मीमें सम्बन्ध मानते हैं । अयुतसिद्ध ( एक दूसरेके विना न रहनेवाले ) आधार्य ( पट ) और आधार ( तन्त ) पदार्थोंका इहप्रत्यय हेत ( इन तन्तओंमें पट है) सम्बन्ध 'समवाय' है। समवायसे पदार्थोंमें सम्बन्ध होता है, इसलिये इसे समवाय कहते हैं । यह समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेप इन पाँच पदार्थोमें रहता है, इसलिये इसे वृत्ति भी कहते हैं। समवाय सम्बन्धसे सर्वथा भिन्न धर्म और धर्मीमें धर्म-धर्मीका व्यवहार होता है। (यह समवाय अवयव-अवयवी, गुणगुणी, क्रिया-क्रियावान्, जाति-व्यक्ति, नित्यद्रव्य और विशेषमें रहता है।)
जैन-उक्त मान्यता प्रत्यक्षसे वाधित है। क्योंकि हमें 'यह धर्मी है', 'ये इस धर्मीके धर्म' और 'यह धर्म-धर्मीमें सम्बन्ध करानेवाला समवाय है' इस प्रकार तीन पदार्थोंका अलग-अलग ज्ञान नहीं होता। जिस प्रकार एक पत्थरके दो टुकड़ोंको परस्पर जोड़नेवाले राल आदि पदार्थ पत्थर के दो टुकड़ोंसे अलग दिखाई देते हैं, उस तरह धर्म और धर्मीका सम्बन्ध करानेवाला समवाय कोई अलग पदार्थ प्रत्यक्षसे दृष्टिगोचर नहीं होता । हमें केवल धर्म और धर्मीका ही प्रतिभास होता है। इसलिये धर्म-धर्मी सम्वन्ध करानेवाला समवाय कोई अलग पदार्थ नहीं है।
तथा, वैशेपिक लोग समवायको एक, नित्य, सर्वव्यापक और अमूर्त स्वीकार करते हैं। इसलिये घटके अग्निमें पकानेसे उत्पन्न होनेवाले रूप आदि धर्म यदि समवाय सम्वन्धसे घटमें रहते हैं, तो ये रूप आदि पटमें भी क्यों नहीं रहते ? क्योंकि समवाय एक, नित्य और व्यापक होनेसे सर्वत्र विद्यमान है । अतएव समवाय-सम्बन्धसे घटमें रहनेवाले धर्म पटमें भी रहने चाहिए; क्योंकि घटधर्म समवाय और पटधर्म समवाय दोनों ही एक, नित्य, व्यापक और अमूर्त हैं।
जैसे एक, नित्य, व्यापक और अमूर्त आकाश एक ही साथ सव सम्बन्धियोंसे समानरूपसे सम्बद्ध होता है, उसी तरह समवाय भी सव सम्बन्धियोंसे समानरूपसे ही क्यों सम्बद्ध नहीं होता? तथा, घटके नष्ट होनेपर घटके समवायका अभाव हो जाता है, इसलिए समवायका ही सर्वथा अभाव मानना चाहिए। क्योंकि समवाय एक है, इसलिए घटके नष्ट होनेसे नष्ट होनेवाले घट-समवायका फिर कभी सद्भाव ही नहीं होगा। यदि वैशेपिक लोग कहें कि समवाय वास्तवमें एक ही है, लेकिन वह घटत्वावच्छेदक-समवाय, पटत्वावच्छेदकसमवाय आदि भिन्न-भिन्न अवच्छेदकोंके भेदसे घट, पट आदि भिन्न-भिन्न पदार्थोमें रहता है, इसलिए घट