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अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ ]
स्याद्वादमञ्जरी
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अथ चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्मा आत्मादेर्घटादेश्च धर्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसम्बन्धेन े संबद्धाः सन्तो धर्मधर्मिव्यपदेश मश्नुवते तन्मतं दूपयन्नाह - न धर्मधर्मित्वमतभेदे वृत्त्यास्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । इदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ न गौणभेदोऽपि च लोकवाधः ||७||
धर्मधर्मिणोरतीवभेदे [ अतीवेत्यत्र इवशब्दो वाक्यालंकारे तं च प्रायोऽतिशब्दात् किं वृत्ते च प्रयुञ्जते शाब्दिकाः, यथा - " आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम्", "उद्वृत्तः क इव सुखावहः परेषाम्” इत्यादि ] ततश्च धर्मधर्मिणोः अतीवभेदे - एकान्त भिन्नत्वेऽङ्गीक्रियमाणे, स्वभावहानेर्धर्मधर्मित्वं न स्यात् । अस्य धर्मिण इमे धर्माः, एषां च धर्माणामयमाश्रयभूतो धर्मी इत्येवं सर्वप्रसिद्धो धर्मधर्मिव्यपदेशो न प्राप्नोति । तयोरत्यन्तभिन्नत्वेऽपि तत्कल्पनायां पदार्थान्तरधर्माणामपि विवश्चितधर्मधर्मित्वापत्तेः ॥
प्राणियों के अदृष्टवलसे ही ईश्वर जीवोंको सुख-दुःख देता है, तो फिर कर्म-प्रधान ही सृष्टि माननी चाहिए, ईश्वरको कर्ता मानने की आवश्यकता नहीं ।
( ५ ) वैशेषिक - ईश्वर नित्य है । जैन – सर्वथा नित्य ईश्वर सतत क्रियाशील है, अथवा अक्रियाशील ? ईश्वरको सतत क्रियाशील माननेपर कोई कार्य कभी समाप्त ही नहीं हो सकेगा । तथा अक्रियाशील माननेपर ईश्वर जगत्का निर्माण नहीं कर सकता ।
'चैतन्य तथा रूप आदि धर्म, आत्मा तथा घट आदि धर्मियोंसे सर्वथा भिन्न हैं, तथा धर्म - धर्मीका सम्बन्ध समवाय सम्बन्धसे होता है' - वैशेषिकोंकी इस मान्यताको सदोष सिद्ध करते हैं—
श्लोकार्थ - धर्म और धर्मोके सर्वथा भिन्न माननेपर 'यह धर्मी है', 'ये इस धर्मीके धर्म हैं' और 'यह धर्म-धर्मी में सम्बन्ध करानेवाला समवाय है' - इस प्रकार तीन वातोंका अलग-अलग ज्ञान नहीं हो सकता । यदि कहो कि समवाय सम्बन्धसे परस्पर भिन्न धर्म और धर्मीका सम्बन्ध होता है, तो यह ठीक नहीं । क्योंकि जिस तरह हमें धर्म और धर्मीका ज्ञान होता है, वैसे समवायका ज्ञान नहीं होता । यदि कहो कि एक समवायको मुख्य मानकर समवाय में समवायत्वको गौणरूपसे स्वीकार करेंगे, तो यह कल्पना मात्र है । तथा इसे माननेमें लोकविरोध आता है ।
व्याख्यार्थ – 'धर्मधर्मिणोरतीवभेदे' [ यहाँ अतीवमें 'इव' शब्द वाक्यके अलंकारमें प्रयुक्त हुआ है, इसका कोई अर्थ नहीं है । शाब्दिक लोग 'इव' शब्दका 'अति' और 'किम्' शब्दके साथ प्रयोग करते हैं; जैसे—''आवर्जिता किंचिदिव स्तनाभ्यां", "उद्वृत्तः क इव सुखावहः परेषाम्” ] भेद माननेपर, स्वभावका अभाव हो जाने से धर्मत्व और धर्मित्व नहीं बनता, हैं, और इन धर्मोका आश्रय यह धर्मी है, इस प्रकारका व्यवहार नहीं हो सकता । धर्म-धर्मीको सर्वथा भिन्न मानकर भी यदि धर्म-धर्मी भावको कल्पना की जायगी, तो एक पदार्थके धर्म दूसरे पदार्थ के धर्म हो जाया करेंगे । ( वैशेषिक लोग द्रव्य ( धर्मी ) और गुण ( धर्म ) को सर्वथा भिन्न मानते हैं । उनके अनुसार उत्पन्न होनेके प्रथम क्षणमें द्रव्य गुणोंसे रहित होता है । जैनदर्शनके अनुसार, धर्म और धर्मीका एकान्त-भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि एकान्त-भेद माननेमें एक पदार्थका धर्म दूसरे पदार्थका धर्म हो जाना चाहिये । जैसे अग्निका उष्णत्व धर्म अग्निसे और जलका शीतत्व धर्म जलसे सर्वथा भिन्न हो तो अग्निके उष्णत्व धर्मका जलके साथ और जलके शीतत्व धर्मका अग्निके साथ सम्बन्ध हो जाना चाहिये, क्योंकि धर्म और धर्मों सर्वथा भिन्न हैं । )
धर्म और धर्मीका एकान्त इसलिये इस धर्मीके ये धर्म
१. उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं निष्क्रियं च तिष्ठतीति समयात् गुणानां गुणिनो व्यतिरिक्तत्वम् । २. ‘अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः संबन्ध इहप्रत्ययेहतुः स समवायः' इति प्रशस्तपादभाष्ये समवायप्रकरणे । ३. कुमारसम्भवमहाकाव्ये ३ - ५४ । ४. शिशुपालवधमहाकाव्ये ।