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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ तदेवमेवं विधदोपकलुपिते पुरुषविशेपे यस्तेषां सेवाहेवाकः स खलु केवलं वलवन्मोहविडम्बनापरिपाक इति । अत्र च यद्यपि मध्यवर्तिनो नकारस्य "घण्टालालान्यायेन" योजनादर्थान्तरमपि स्फुरति यथा इमाः कुहेवाकविडम्बनास्तेषां न स्युर्येपां त्वमनुशासक इति तथापि सोऽर्थः सहृदयैर्न हृदये धारणीयः, अन्ययोगव्यवच्छेदस्याधिकृतत्वात् ॥ इति काव्यार्थः ॥ ६॥
इस प्रकार अनेक दोपोंसे दूपित पुरुपविशेप ईश्वर को जगत्के कर्ता माननेका आग्रह केवल वलवान मोहकी विडम्वनाका ही फल है। 'इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेपां न येपामनुशासकस्त्वम्', यहाँ मध्यवर्ती नकारका 'घण्टालालान्याय' से ( मध्यमणिन्याय अथवा देहलीदीपकन्याय या घण्टालालान्याय एक ही अर्थको सूचित करते हैं। जैसे एक ही मणि, अथवा दीपक घरकी देहलीपर रखनेसे दोनों ओरको वस्तुओंको प्रकाशित करते हैं, अथवा एक ही घण्टा अपनी दोनों तरफ बजता है, उसी तरह यहाँ भी एक ही 'नकार' का दो तरहसे अन्वय होता है ) श्लोकका दूसरा अर्थ भी निकलता है कि जिनके आप अनुशासक हैं, उनके कदाग्रहरूप विडम्बनायें नहीं है। परन्तु यह अर्थ विद्वानोंको नहीं लेना चाहिये। क्योंकि यहाँ स्तुतिकारने अन्ययोगव्यवच्छेदका अवलम्बन लिया है । यह श्लोकका अर्थ है ॥६॥
भावार्थ-इस श्लोकमें वैशेषिकोंके ईश्वरके स्वरूपका खण्डन किया गया है। वैशेपिकोंके अनुसार ईश्वर (१) जगत्का कर्ता है, (२) एक है, (३) सर्वव्यापी है, (४) स्वतन्त्र है, और (५) नित्य है।
(१) वैशेपिक-'पृथिवी, पर्वत आदि किसी बुद्धिमान् कर्ताके बनाये हुए हैं, क्योंकि ये कार्य हैं। जो-जो कार्य होता है, वह किसी बुद्धिमान् कर्ताका बनाया हुआ देखा जाता है, जैसे घर । पृथिवी, पर्वत आदि भी कार्य हैं, इसलिये ये भी किसी कर्ताके बनाये हुए हैं; जो किसी कर्ताका बनाया हुआ नहीं होता, वह कार्य भी नहीं होता, जैसे आकाश' । जैन-(क ) उक्त अनुमान प्रत्यक्षसे बाधित है, क्योंकि हमें पृथिवी, पर्वत आदिका कोई कर्ता दृष्टिगोचर नहीं होता। (ख) घटका दृष्टान्त विषम है। क्योंकि घटादि कार्य सशरीर कर्ताके ही वनाये हुए देखे जाते हैं, तथा ईश्वरको अशरोर कर्ता माना गया है। तथा ईश्वरको सशरीर माननेमें इतरेतराश्रय आदि अनेक दोप आते हैं।
(२) वैशेषिक-ईश्वर एक है, क्योंकि अनेक ईश्वर होनेसे जगत्में एकरूपता और क्रम नहीं रह सकता । जैन-उक्त मान्यता एकान्तरूपसे सत्य नहीं है। क्योंकि शहदके छत्ते आदि पदार्थोको अनेक मधुमक्खियाँ तैयार करती है, फिर भी छत्तेमें क्रम और एकरूपता देखी जाती है।
(३) वैशेषिक-ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है। जैन-ईश्वर सर्वव्यापी नहीं हो सकता, क्योंकि उसके सर्वव्यापी होनेसे प्रमेय पदार्थोके लिये कोई स्थान न रहेगा। ईश्वरका सर्वज्ञत्व भी किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि स्वयं सर्वज्ञत्व प्राप्त किये बिना हम प्रत्यक्षसे ईश्वरका साक्षात् ज्ञान नहीं कर सकते । अनुमानसे भी हम ईश्वरको नहीं जान सकते, क्योंकि वह बहुत दूर है, इसलिए सर्वज्ञत्वसे सम्बद्ध किसी हेतुसे उसका ग्रहण नहीं हो सकता। 'सर्वज्ञत्वके विना जगत्को विचित्र रचना नहीं हो सकती'-इस अर्थापत्ति प्रमाणसे भी सर्वज्ञत्व सिद्ध नहीं होता । क्योंकि जगत्की विचित्रताकी व्याप्ति सर्वज्ञत्वके साथ नहीं है। आगम प्रमाणसे भी हम सर्वज्ञको नहीं जान सकते, क्योंकि वेद आदि आगम पूर्वापरविरोध आदि दोषोंसे युक्त हैं, इसलिए आगम विश्वनीय नहीं है।
(४) वैशेपिक-ईश्वर स्वतन्त्र है। जैन-यदि ईश्वर स्वतन्त्र है, तो वह दुःखोंसे परिपूर्ण विश्वकी क्यों रचना करता है ? अन्यथा ईश्वरको क्रूर और निर्दय मानना चाहिये। यदि कहा जाय कि
१. मध्यमणिन्यायः, देहलोदीपकन्यायस्तद्वदेवायं घण्टालालान्याय उपयुज्यते ।