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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ ] स्याद्वादमञ्जरी ४१ भवतां सृष्टिसंहारयोः शम्भौ स्वभावभेदः । रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्त्विकतया च स्थितौ तस्य व्यापारस्वीकारात् । एवं चावस्थाभेदः, तद्भेदे, चावस्थावतोऽपि भेदाद् नित्यत्वक्षतिः ॥ अथास्तु नित्यः, तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते । इच्छावशात् चेत्, ननु ता अपीच्छाः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः । तथा शम्भोरष्टगुणाधिकरणत्वे, कार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वाद् नित्यत्वहानिः न वार्यते ॥ किन, प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्वार्थ करुणाभ्यां व्याप्ता । ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्, कारुण्याद् वा ? न तावत् स्वार्थान् तस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात्, परदुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यम् । ततः प्राक् सर्गाजीवानामिन्द्रियशरीरविपयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम् ? सर्वोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्युपगमे दुरुत्तरमितरेतराश्रयम् । कारुण्येन सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यम् । इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्धयति ॥ दूसरे स्वभावसे वह संहार करता है, तो यह माननेमें ईश्वर नित्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि स्वभावका भेद होना ही अनित्यताका लक्षण है। जिस प्रकार आहारके परमाणुओंसे युक्त पार्थिव शरीरमें प्रतिदिन नवीन नवीन उत्पत्ति होनेके कारण स्वभावभेद होता है, इसलिए पार्थिव शरीर अनित्य है, उसी तरह ईश्वरके स्वभावका भेद माननेपर ईश्वर भी अनित्य होगा । परन्तु आप लोग जगत् की सृष्टि और संहार में ईश्वरके स्वभाव-भेदको स्वीकार करते हैं। क्योंकि आपके अनुसार ईश्वर सृष्टिमें रजोगुणरूप, संहारमें तमोगुणरूप, और स्थिति में सत्वगुणरूप प्रवृत्ति करता है। इस प्रकार अनेक अवस्थाओंके भेद होनेसे ईश्वर नित्य नहीं कहा जा सकता । यदि ईश्वरको नित्य मान भी लिया जाय, तो वह जगतके बनानेमें सदा ही प्रयत्नवान् क्यों नहीं रहता ? यदि कहो कि अपनी इच्छाके कारण ईश्वर जगत्‌को बनाने में सदा ही प्रयत्नवान् नहीं होता तो अपनी सत्तामात्रसे उत्पन्न हुई इच्छाएँ भी ईश्वरको सदा काल प्रवृत्त क्यों नहीं करतीं ? इस प्रकार पूर्वोक्त दोष ही माता है । तथा आप लोग ईश्वरमें बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग नामके आठ गुणोंको स्वीकार करते हैं । परन्तु कार्य-भेदसे अनुमेय ईश्वरको इच्छाओंके विषमरूप होनेसे ईश्वरके नित्यत्वको हानिको कौन दूर कर सकता है ? ( अर्थात् यदि ईश्वर नित्य है, तो उसकी इच्छायें भी सदा समान हो रहनी चाहिए। परन्तु संसारके नाना कार्योंको देखकर अनुमान होता है कि ईश्वरकी इच्छाएँ भी नाना प्रकारकी ( विषम ) हैं, और ईश्वरकी इच्छाओंके विषम होनेसे ईश्वरको भी अनित्य मानना चाहिए। ) तथा, बुद्धिमान् पुरुषोंकी प्रवृत्ति स्वार्थ ( किसी प्रयोजनसे ) अथवा करुणाबुद्धिपूर्वक ही होती है । यहाँ प्रश्न होता है कि जगत्को सृष्टिमें ईश्वर स्वार्थसे प्रवृत्त होता है अथवा करुणासे ? स्वार्थसे ईश्वरकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह कृतकृत्य है । यह प्रवृत्ति करुणा से भी सम्भव नहीं, क्योंकि दूसरेके दुखोंको दूर करने की इच्छाको करुणा कहते हैं । परन्तु ईश्वर के सृष्टि रचनेसे पहले जीवोंके इन्द्रिय, शरीर और विषयोंका अभाव था, इसलिये जीवोंके दुःख भी नहीं था, फिर किस दुखको दूर करनेकी इच्छासे ईश्वर के करुणाका भाव उत्पन्न हुआ ? यदि कहो कि सृष्टिके बाद दुखो जीवोंका देखकर ईश्वरके करुणाका भाव उत्पन्न होता है, तो इतरेतराश्रय नामका दोष आता है । क्योंकि करुणासे जगत्की रचना हुई, और जगत् की रचनासे करुणा हुई । इस प्रकार ईश्वरके किसी भी तरह जगत्का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । १. बुद्धीच्छा प्रयत्न संख्यापरिमाणपृथक्त्व संयोगविभागाख्या अष्टौ गुणाः । ६
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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