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अन्य. यो. व्य. श्लोक ६] स्याद्वादमञ्जरी नामपि इह पटे तन्तव इत्येव प्रतीतिदर्शनात् । इह भूतले घटाभाव इत्यत्रापि समवायप्रसङ्गात् । अत एवाह 'अपि च लोकबाध' इति । अपि चेति-दूपणाभ्युञ्चये, लोकः-प्रामाणिकलोकः, सामान्यलोकश्च; तेन वाधो-विरोधः; लोकबाधः । तदप्रतीतव्यवहारसाधनात् बाधशब्दस्य "ईहाद्याः प्रत्ययभेदतः” इति पुंस्त्रीलिङ्गता। तस्माद्धर्मधर्मिणोरविष्वग्भावलक्षण एव सम्बन्धः प्रतिपत्तव्यो नान्यः समवायादिः । इति काव्यार्थः ॥७॥
अथ सत्ताभिधानं पदार्थान्तरम्, आत्मनश्च व्यतिरिक्तं ज्ञानाख्यं गुणम् , आत्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपांच मुक्तिम् , अज्ञानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह--
सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत् ।
न संविदानन्दमयी च मुक्तिः सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयः ।।८।। पुरुपको भी 'इन तन्तुओंमें पट है' यह प्रतीति न होकर 'इस पटमें तन्तु है' ऐसी प्रतीति होती है । अन्यथा इस भूतलमें घटका अभाव है, यहाँ भी समवाय मानना चाहिए क्योंकि यहाँ भी इहप्रत्यय होता है । इसीलिए ग्रन्थकारने कहा है 'अपि च लोकबाधः'-यह अप्रतीत व्यवहार साधारण लोगोंके भी अनुभवके विरुद्ध है [ वाध शब्द 'ईहाद्याः प्रत्ययभेदतः' इस सूत्रसे पुलिंग और स्त्रीलिंग दोनोंमें प्रयुक्त होता है ]। इसलिए धर्म और धर्मीमें तादात्म्य सम्बन्ध ही स्वीकार करना चाहिए, समवाय सम्बन्ध नहीं। यह श्लोकका अर्थ है ॥ ७ ॥
भावार्थ-इस श्लोकमें वैशेषिकोंके समवाय पदार्थका खण्डन किया गया है। वैशेषिकोंकी मान्यता है कि धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न हैं। इन दोनों भिन्न पदार्थोका सम्बन्ध समवायसे होता है। जैनोंका कथन है कि जिस प्रकार दो पत्थरके टुकड़ोंको जोड़नेवाले लाख आदि पदार्थका हमें प्रत्यक्षसे ज्ञान होता है, वैसे धर्म और धर्मीका सम्बन्ध करानेवाले समवाय सम्बन्धको हम प्रत्यक्षसे नहीं जानते, इसलिए समबायको धर्मधर्मीसे पृथक् तीसरा पदार्थ मानना प्रत्यक्षसे बाधित है । इसके अतिरिक्त, वैशेषिक लोग समवायको एक, नित्य
और सर्वव्यापक मानते हैं, अतएव एक पदार्थमें समवायके नष्ट हो जानेपर संसारके समस्त पदार्थोमें रहनेवाला समवाय नष्ट हो जाना चाहिए। क्योंकि समवाय एक और सर्वव्यापक है। तथा, वैशेषिक लोग इहप्रत्यय ( इन तन्तुओंमें पट है ) से समवाय सम्बन्धका ज्ञान करते है, परन्तु जैसे पटमें पटत्व समवाय सम्बन्धसे स्वीकार करते हैं, वैसे ही वे लोग समवायमें भी समवायत्व दूसरे समवायसे और दूसरेमें तीसरे समवायसे, क्यों नहीं मानते ? तथा समवायमें समवायान्तर माननेसे अनवस्था दोष आता है।
यदि वैशेषिक लोग पृथिवी आदिके अनेक होनेसे पृथिवीमें पृथिवीत्व मुख्य-समवायते, तथा समवायके एक होनेसे समवायमें समवायत्व गौण-समवायसे मानकर मुख्य और गौणके भेदसे समवाय सम्बन्ध स्वीकार करते हैं, तो यह भो कल्पना मात्र है। क्योंकि समवाय-बहुत्व भी अनुभवसे सिद्ध है। कारण कि घट और घटरूपका समवाय पट और पटरूपके समवायसे भिन्न है । तथा इहप्रत्यय हेतु समवाय माननेसे लोकवाधा भी आती है। क्योंकि जनसाधारण को 'इन तन्तुओंमें पट है' यह प्रतीति न होकर 'इस पट में तन्तु हैं'यही ज्ञान होता है । अतएव धर्म-धर्मीमें समवाय सम्बन्ध मानना ठीक नहीं, इसलिए धर्म और धर्मीमें अत्यन्त भेद मानना भी युक्तियुक्त नहीं है।
(१) सत्ता भिन्न पदार्थ है, (२) आत्मासे ज्ञान भिन्न है, (३) आत्माके विशेष गुणोंका नष्ट हो जाना मोक्ष है-इन मान्यताओंको अज्ञानसे स्वीकार करनेवाले वादियोंका उपहास करते हुए कहते हैं
श्लोकार्थ-सत् पदार्थों में भी सब पदार्थोंमें सत्ता नहीं रहती; ज्ञान उपाधिजन्य है, इसलिए ज्ञान
१. हैमलिंगानुशासने पुंस्त्रीलिंगप्रकरणे श्लोक ५.