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________________ ३६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [ अन्य यो. व्य. श्लोक ६ बहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति । तत्रेदमुत्तरम् । किरणानां गुणत्वमसिद्धम् ; तेषां तैजसपुद्गलमयत्वेन द्रव्यत्वात् । यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग् भवतीति । तथा च धर्मसङ्ग्रहिण्यां श्रीहरिभद्राचार्यपादाः - “किरणा गुणा न दव्वं तेसिं पयासो गुणो न वा दव्वं । जं नाणं आयगुणो कहमव्वो स अन्नत्थ ॥ १ ॥ गन्तूण न परिछिन्दइ नाणं णेयं तयम्मि देसम्म । आयत्थं चिय नवरं अर्चितसन्ती विण्णेयं ॥२॥ लोहोवलस्स सत्ती आयत्था चेव भिन्नदेसंपि । लोहं आगरिसंती दीसह इह कज्जपच्चक्खा ॥३॥ एवमिह नाणसत्ती आयत्था चेव हंदि लोगंतं । जइ परिदिइ सम्मं को णु विरोहो भवे एत्थं”" ॥४॥ इत्यादि ॥ चलती है, उसी तरह यहाँ भी हमने जिनेन्द्रके ज्ञानकी शक्तिको देखकर जिनेन्द्रको ज्ञानको अपेक्षा सर्वव्यापक कहा है । तथा ज्ञान प्राप्यकारी नहीं है, क्योंकि वह आत्माका धर्म है, इसलिये ज्ञान आत्मासे बाहर निकल कर नहीं जा सकता । यदि ज्ञान आत्मा के बाहर निकल कर जाने लगे तो आत्माके अचेतनत्वकी आपत्ति खड़ी हो जानेसे उसके अजीवत्वका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। लेकिन यह संभव नहीं, क्योंकि धर्मीको छोड़कर केवल धर्म कहीं भी नहीं रहता । तथा वैशेषिक लोगोंने जो सूर्यका दृष्टांत दिया है कि जैसे सूर्यको किरणें गुणरूप होकर भी सूर्य से बाहर जाकर संसारको प्रकाशित करती हैं, उसी तरह ज्ञान आत्माका गुण होकर भी आत्मासे बाहर जाकर प्रमेय पदार्थको जानता है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि किरणोंका गुणत्व ही असिद्ध है, कारण कि किरणें तेजस पुद्गलरूप हैं, इसलिये वे द्रव्य हैं। तथा किरणोंका प्रकाशात्मक गुण कभी किरणोंसे अलग नहीं होता । हरिभद्राचार्यने धर्मसंग्रहिणी में भी कहा है " किरणें द्रव्य हैं, गुण नहीं हैं । किरणोंका प्रकाश गुण है । यह प्रकाशरूप गुण द्रव्यको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता । इसी तरह ज्ञान आत्माका गुण है, वह आत्माको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ॥ १ ॥ जिस देशमें ज्ञेय पदार्थ स्थित है उस प्रदेशमें ज्ञान जाकर ज्ञेयको नहीं जानता, किन्तु आत्मामें रहते हुए ही दूर देशमें स्थित ज्ञेयको जानता है; आत्माके ज्ञानमें अचित्य शक्ति है ॥२॥ जिस प्रकार चुम्बक पत्थरको शक्ति चुम्बकमें ही रहकर दूर रक्खे हुए लोहेको अपनी ओर खींचती है; ||३|| इसी प्रकार ज्ञान शक्ति आत्मामें ही रहकर लोकके अंत तक रहनेवाले पदार्थोंको भलीभांति जानती. है, इसमें कोई विरोध नहीं है ||४||" इत्यादि । १. किरणा गुणा न द्रव्यं तेषां प्रकाशो गुणो न वा द्रव्यं । यज्ज्ञानमात्मगुणः कथमद्रव्यः सः अन्यत्र ॥ गत्वा न परिच्छिनत्ति ज्ञानं ज्ञेयं तस्मिन्देशे । आत्मस्थमेव नवरं अचिन्त्यशक्त्या तुं विज्ञेयम् ॥ लोहोपलस्य शक्तिः आत्मस्थैव भिन्नदेशमपि । लोहमाकर्षती दृश्यते इह कार्यप्रत्यक्षा ॥ एवमिह ज्ञानशक्तिः आत्मस्थैव हन्त लोकान्तम् । यदि परिच्छिनत्ति सम्यक् को नु विरोधो भवेदत्र ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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