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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६] स्याद्वादमञ्जरी अथ सर्वगः सर्वज्ञ इति व्याख्यातम् । तत्रापि प्रतिविधीयते । ननु तस्य सार्वयं केन प्रमाणेन गृहीतम् । प्रत्यक्षेण, परोक्षेण वा ? न तावत् प्रत्यक्षेण, तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नतयातीन्द्रियग्रहणासामर्थ्यात् । नापि परोक्षेण । तद्धि अनुमानं, शाब्दं वा स्यात् ? न तावदनुमानम्, तस्य लिङ्गि लिङ्गसम्बन्धस्मरणपूर्वकत्वात् । न च तस्य सर्वज्ञत्वेऽनुमेये किञ्चिदव्यभिचारी लिङ्गं पश्यामः। तस्यात्यन्तविप्रकृष्टत्वेन तत्प्रतिबद्धलिङ्गसम्बन्धग्रहणाभावात् ॥ ___ अथ तस्य सर्वज्ञत्वं विना जगद्वैचित्र्यमनुपपद्यमानं सर्वज्ञत्वमर्थादापादयतीति चेत् न । अविनाभावाभावात् । न हि जगद्वैचित्री तत्सार्वश्यं विनान्यथा नोपपन्ना। द्विविधं हि जगत् स्थावरजङ्गमभेदात् । तत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तशुभाशुभकर्मपरिपाकवशेनैव । स्थावराणां तु सचेतनानामियमेव गतिः। अचेतनानां तु तदुपभोगयोग्यतासाधनत्वेनानादिकालसिद्धमेव वैचित्र्यमिति ॥ नाप्यागमस्तत्साधकः । स हि तत्कृतोऽन्यकृतो वा स्यात् ? तत्कृत एव चेत् तस्य सर्वज्ञतां साधयति तदा तस्य महत्त्वक्षतिः। स्वयमेव स्वगुणोत्कीर्तनस्य महतामनधिकृतत्वात् । अन्यच्च, तस्य शास्त्रकर्तृत्वमेव न युज्यते । शास्त्रं हि वर्णात्मकम् । ते च ताल्वादिव्यापार (३) सर्वज्ञत्व-वैशेषिकोंके ईश्वरका सर्वज्ञत्व प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता । प्रत्यक्ष प्रमाणसे ईश्वरका सर्वज्ञत्व इसलिये सिद्ध नहीं हो सकता कि प्रत्यक्ष इंद्रिय और मनके संयोगसे उत्पन्न होता है, इसलिये वह अतीन्द्रिय ज्ञानको नहीं जान सकता। परोक्ष ज्ञानसे भी ईश्वरके सर्वज्ञत्वकी सिद्धि नहीं होती । क्योंकि वह परोक्ष ज्ञान अनुमानसे सर्वज्ञत्वको जानता है, अथवा शब्दसे ? अनुमानसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि लिंगी और लिंग ( साध्य और हेतु ) दोनोंके संबंधके स्मरणपूर्वक ही अनुमान होता है। (जैसे 'पर्वत अग्निवाला है, धूमवान् होनेसे-' यहां पहले धूमरूप लिंगका ग्रहण होता है और फिर अग्निरूप लिंगीके साथ लिंगके संबंधका स्मरण होता है। इसी तरह 'ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह अपनी इच्छासे ही संपूर्ण प्राणियोंको सुख-दुःखका अनुभव करानेमें समर्थ हैइस अनुमानमें लिंगका ग्रहण और इस लिंगका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधका स्मरण होना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता; इसलिये अनुमानसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वका ज्ञान नहीं हो सकता।) तथा ईश्वरके सर्वज्ञत्वरूप अनुमेयमें हम कोई भी अव्यभिचारी लिंग नहीं देखते, क्योंकि वह ईश्वर अत्यन्त दूर है, इसलिये ईश्वरसे संबद्ध लिंगका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधका ग्रहण नहीं हो सकता। यदि वादी लोग कहें कि ईश्वरके सर्वज्ञत्वके बिना जगत्की विचित्रता नहीं बन सकती, इस कारण अर्थापत्तिसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वकी सिद्धि होती है, तो यह कथन भी ठीक नहीं। क्योंकि जगत्को विचित्रता और सर्वज्ञताकी व्याप्तिका अभाव है। जगत्की विचित्रता ईश्वरको सर्वज्ञताके बिना अन्य प्रकारसे घटित नहीं होती, ऐसी बात नहीं है। जंगम (त्रस) और स्थावरके भेदसे संसार दो प्रकारका है। जंगम जीवोंको विचित्रता स्वयं उपार्जित शुभ और अशुभ कर्मोके उदयसे ही होती है और स्थावर जीवोंकी यही दशा होती है। अचेतन पदार्थोंका वैचित्र्य स्थावर और जंगमके उपभोगको योग्यताके साधन रूपमें अनादिकालसे सिद्ध ही है। आगमसे भी ईश्वरकी सिद्धि नहीं होती। क्योंकि ईश्वरको सिद्ध करनेवाला आगम ईश्वरका बनाया हुआ है, या किसी दूसरेका? यदि वह आगम ईश्वरप्रणीत होकर ही ईश्वरकी सिद्धि करता है तो ईश्वरकी महान् क्षति होगी। क्योंकि महात्मा लोग स्वयं ही अपने गुणोंको प्रशंसा नहीं करते हैं । तथा ईश्वरका शास्त्रकर्तृत्व ही सिद्ध नहीं होता। क्योंकि शास्त्र वर्णात्मक होता है। ये वर्ण तालु आदिकी क्रियासे उत्पन्न होते
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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