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________________ ३५ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६] स्याद्वादमञ्जरी निर्मिमीते, यदि वा सङ्कल्पमात्रेण ? आये पक्षे एकस्यैव भूभूधरादेविधानेऽक्षोदीयसः कालक्षेपस्य सम्भवाद् बंहीयसाप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद् दूषणमुत्पश्यामः । नियतदेशस्थायिनां सामान्यदेवानामपि सङ्कल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रतिपत्तेः॥ किञ्च, तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थानेष्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते । तथा चानिष्टापत्तिः। अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मना सर्वं जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसंभवात् नरकादिदुःखस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसङ्गाच्च अनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत्, तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरिवावकिरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, न पुनस्तत्र गत्वा। तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः । नहि भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वादानुभूतिः। तद्भावे हि स्रक्चन्दनाङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैव तृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्तिरिति ।। ___ यत्तु ज्ञानात्मना सर्वगतत्वे सिद्धसाधनं प्रागुक्तम् तच्छक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यम् । तथा च वक्तारो भवन्ति । अस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति इति । न च ज्ञानं प्राप्यकारि; तस्यात्मधर्मत्वेन बहिर्निर्गमाभावात् । बहिर्निर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्या अजीवत्वप्रसङ्गः। न हि धर्मो धर्मिणमतिरिच्य क्वचन केवलो विलोकितः। यच्च परे दृष्टान्तयन्ति यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्याद् निष्क्रम्य भुवनं भासयन्ति, एवं ज्ञानमप्यात्मनः सकाशाद् यहां प्रश्न होता है कि त्रैलोक्यकी सृष्टि करनेवाला ईश्वर बढ़ईकी तरह साक्षात् शरीरकी मददसे जगत्को बनाता है, अथवा संकल्पमात्रसे? पहला पक्ष स्वीकार करने में पृथिवी, पर्वत आदिके निर्माण करने में अत्यन्त कालक्षेपकी सम्भावना होनेसे बहुत समय लगेगा, इसलिये बहुत समय तक भी तीनों लोकोंकी रचना न हो सकेगी। यदि कहो कि ईश्वर संकल्पमात्रसे ही सृष्टिको ही बनाता है, तो यदि एक स्थानमें रहकर भी ईश्वर जंगत्को बनाये, तो उसमें भी कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता, क्योंकि नियत देशमें रहनेवाले सामान्य देव भी संकल्पमात्रसे ही उन-उन कार्योंका सम्पादन करते हैं। तथा ईश्वरको शरीरकी अपेक्षा सर्वव्यापी माननेसे वह ईश्वर अशुचि पदार्थों में और निरन्तर महा अंधकारसे व्याप्त नरक आदिमें भी रहा करेगा और यह मानना आप लोगोंको इष्ट नहीं है। ईश्वरवादीज्ञानकी अपेक्षा जिनभगवानको जगत्त्रयमें व्यापी माननेसे आप लोगोंके भगवान्को भी अशुचि पदार्थोके रसाः स्वादनका ज्ञान होता है तथा नरक आदि दुःखोंके स्वरूपका ज्ञान होनेसे दुःखका भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनोंको समान है । जैन-यह कहना युक्तियों द्वारा प्रतिकार करनेमें असमर्थ होकर धूल फेंकनेके समान है। क्योंकि अप्राप्यकारी ज्ञान अपने स्थानमें स्थित होकर ही ज्ञेयको जानता है, ज्ञेयके स्थानको प्राप्त होकर नहीं, इसलिये वादीका दिया हुआ दूषण ठीक नहीं है। तथा दूसरी बात यह भी है कि केवल अशुचि पदार्थके ज्ञानसे हो आपको भी रसास्वादनकी अनुभूति नहीं होती है। यदि ऐसा होने लगे, तो माला, चन्दन, स्त्री, और मनोज्ञ पदार्थोंके चिन्तन मात्रसे ही तृप्ति हो जानी चाहिये, और इसलिये माला, चन्दन आदिके लिए प्रयत्न करना भी निष्फल हुआ करेगा। तथा हमने जो ज्ञानकी अपेक्षा ईश्वरके सर्वव्यापी होनेके आपके पक्षमें सिद्धसाधन दोष प्रदर्शित किया था, वह परम पुरुष जिनेन्द्र भगवान्की ज्ञानकी शक्तिकी अपेक्षा प्रदर्शित किया था। (तात्पर्य यह कि जैसे न्याय-वैशेषिक ईश्वरका सर्वगतत्व ज्ञानकी अपेक्षा स्वीकार करते हैं; वैसे ही जैन लोग भी परम पुरुष जिनेन्द्रका सर्वगतत्व ज्ञानकी अपेक्षा स्वीकार करते हैं । अतएव जैन लोगोंने कहा था कि इससे तो हमारे साध्यको ही सिद्धि होती है। ) जैसे किसी मनुष्यको बुद्धिकी शक्तिको देखकर लोग कहते हैं कि इसकी बुद्धि सव शास्त्रोंमें
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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