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________________ ३४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ तत्रैकत्वचर्चस्तावत्। वहूनामेककार्य करणे वैमत्यसम्भावना इति नायमेकान्तः । अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमूर्ध्नः, अनेकशिल्पिकल्पितत्वेऽपि प्रासादादीनां, नैकसरघानितितत्वेऽपि मधुच्छत्रादीनां चैकरूपताया अविगानेनोपलम्भात् । अथैतेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति पे । एवं चेद् भवतो भवानीपतिं प्रति निष्प्रतिमा वासना, तर्हि कुविन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते । अथ तेषां प्रत्यक्षसिद्ध कर्तृत्वं कथमपह्नोतु शक्यम् । तर्हि कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं यत् तेषामसदृशताशप्रयाससाध्यं कर्तृत्वमेकहेलयैवापलप्यते। तस्माद् वैमत्यभयाद् महेशितुरेकत्वकल्पना भोजनादिव्ययभयात् कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुत्रकलत्रादिपरित्यजनेन शून्यारण्यानीसेवनमिवाभासते। तथा सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना, ज्ञानात्मना वा स्यात् ? प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्त्रयस्य व्याप्तत्वाद् इतरनिर्मेयपदार्थानामाश्रयानवकाशः। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता। अस्माभिरपि निरतिशयज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्त्रयक्रोडीकरणाभ्युपगमात् । यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः। तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम्-"विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पात्" इत्यादिश्रुतेः॥ । यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्तित्वे त्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति । तत्रेदं पृच्छयते । स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत् साक्षाद् देहव्यापारेण (१) एकत्व-'बहुत-से ईश्वरोंद्वारा जगतरूप एक कार्यके किये जानेपर ईश्वरोंमें मतिका भे दउत्पन्न होगा' यह कथन एकान्त-सत्य नहीं है। क्योंकि सैकड़ों कोड़ियां एक ही बमीको बनाती हैं, बहुत से शिल्पी एक ही महलको बनाते हैं, बहुत सी मधुमक्खी एक ही शहदके छत्तेका निर्माण करती हैं, फिर भी वस्तुओंकी एकरूपतामें कोई विरोध नहीं आता। यदि वादी कहे कि बमी, प्रासाद आदिका कर्ता भी ईश्वर ही है, तो इससे ईश्वरके प्रति आप लोगोंकी निरुपम श्रद्धा ही प्रगट होती है, और इस तरह तो जुलाहे और कुंभकार आदिको पट और घट आदिका कर्ता न मानकर ईश्वरको ही इनका भी कर्ता मानना चाहिये। यदि आप कहें कि पट घट आदिके कर्ता जुलाहा और कुंभकारके प्रत्यक्ष-सिद्ध कर्तृत्वका अपलाप कैसे किया जा सकता है ? तो फिर कोटिका आदिको बमी आदिका कर्ता माननेमें क्या दोष है ? कीटिका आदिने आप लोगोंका क्या अपराध किया है जो आप उनके असाधारण परिश्रमसे साध्य कर्तृत्वको एक चुटकीमें ही उड़ा देना चाहते हैं ? इसलिए परस्पर मतिभेद होनेके भयसे जो एक ईश्वरकी कल्पना है, वह भोजन आदिके व्ययके डरसे कृपण पुरुषके अपने अत्यन्त प्रिय पुत्र और स्त्री आदिको छोड़कर शून्य जंगलमें वास करनेके समान है। ( जैसे कोई कृपण पुरुष खर्चके भयसे अपने स्त्री-पुत्रादिको छोड़कर वनमें चला जाय, उसी तरह मतिभेदके भयसे आप लोग भी एक ईश्वरकी कल्पना करते हैं।) (२) सर्वगतत्व-तथा ईश्वर सर्वगत भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ईश्वरका सर्वगतत्व शरीर को अपेक्षासे है, अथवा ज्ञानकी ? प्रथम पक्षमें ईश्वरका अपना शरीर ही तीनों लोकोंमें व्याप्त हो जायेगा, फिर दूसरे बनाने योग्य (निर्भय ) पदार्थोके लिए कोई स्थान ही न रहेगा। यदि आपलोग ज्ञानकी अपेक्षा ईश्वरको सर्वव्यापी मानें, तो इसमें हमारे साध्यको सिद्धि है, क्योंकि हम लोग (जैन) भी परमात्माको निरतिशय ज्ञानकी अपेक्षा तीनों लोकोंमें व्यापी मानते हैं। परन्तु ईश्वरको ज्ञानको अपेक्षा सर्वगत माननेसे आपके वेदसे विरोध आता है । वेदमैं ईश्वरको शरीरको अपेक्षासे सर्वव्यापी कहा है। श्रुति भी है-"ईश्वर सर्वत्र नेत्रोंका, मुखका, हाथोंका और पैरोंका धारक है।" तथा ईश्वरको शरीरको अपेक्षा सर्वव्यापक माननेमें वादीने हेतु दिया है कि यदि ईश्वरको नियत स्थानवर्ती माना जाय, तो तीनों लोकोंमें अनियत स्थानोंके पदार्थोंकी यथावत् उत्पत्ति नहीं हो सकेगी; तो १. शुक्लयजुर्वेदमाध्यन्दिनसंहितायां सप्तदशेऽध्याये १९ मन्त्रे ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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