________________
अन्य. यो. व्य. श्लोक ६] स्याद्वादमञ्जरी
द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणम्, आहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् ? प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यायनीयः, तत्सिद्धौ प्रमाणाभावात् । इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च । सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम् । तत्सिद्धौ च माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति । द्वैतीयिकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे; संशयानिवृत्तः। किं तस्यासत्त्वाद् अदृश्यशरीरत्वं वान्ध्येयादिवत् किं वास्मदाबदृष्टवैगुण्यात् पिशाचादिवदिति निश्चयाभावात् ।
___ अशरीरश्चेत् तदा दृष्टान्तदाान्तिकयोवैषम्यम् । घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टाः। अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यम् ? आकाशादिवत् । तस्मात् सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वयेऽपि कार्यत्वहेतोाप्त्यसिद्धिः।
किञ्च, त्वन्मतेन कालात्ययापदिष्टोऽप्ययं हेतुः। धयेकदेशस्य तरुविद्यभ्रादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरं हेतुभणनात् । तदेवं न कश्चिद् जगतः कर्ता । एकत्वादीनि तु जगत्कर्तृत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषणानि पण्डं प्रति कामिन्या रूपसंपन्निरूपणप्रायाण्येव । तथापि तेषां विचारासहत्वख्यापनार्थ किञ्चिदुच्यते। अनेकांतिक हेत्वाभास है। इसी प्रकार यहां भी कार्यत्वहेतु पृथ्वी आदि पक्षमें घट आदि सपक्षमें तथा ईश्वरके शरीर-द्वारा नहीं बनाये हुए घास, वृक्ष आदि विपक्षमें भी कार्यत्वहेतु चला गया, इसलिये यह हेतु साधारण अनेकांतिक हेत्वाभास होनेसे दोषपूर्ण है।)
यदि कहो कि ईश्वर पिशाच आदिके समान अदृश्य शरीरसे जगतकी सृष्टि करता है तो इस शरीरके अदृश्य होनेमें ईश्वरका माहात्म्यविशेष कारण है, अंथवा हम लोगोंका दुर्भाग्य ? प्रथम पक्ष विश्वासके योग्य नहीं है। क्योंकि ईश्वरके अदृश्य शरीर सिद्ध करने में कोई प्रमाण नहीं है। तथा ईश्वरके माहात्म्यविशेष सिद्ध होनेपर उसके अदृश्य शरीर सिद्ध हो, और अदृश्य शरीर सिद्ध होनेपर माहात्म्यविशेष सिद्ध हो, इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष भी आता है। यदि कहो कि हम लोगोंके दुर्भाग्यसे ईश्वरका शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता तो यह भी ठीक नहीं जंचता। क्योंकि वंध्यापुत्रकी तरह ईश्वरका अभाव होनेसे उसका शरीर दिखाई नहीं देता, अथवा जिस प्रकार हमारे दुर्भाग्यवश पिशाच आदिका शरीर दिखाई नहीं देता, वैसे ही ईश्वरका शरीर भी अदृश्य है ? इस तरह कुछ भी निश्चय नहीं होता।
तथा ईश्वरको अशरीरस्रष्टा माननेमें दृष्टांत और दार्टान्तिक विषम हो जाते हैं। क्योंकि घटादिक कार्य शरीर सहित कर्ताके बनाये हुए ही देखे जाते हैं। फिर आकाशकी तरह अशरीर ईश्वर किस प्रकार कार्य करनेमें समर्थ हो सकता है ? (तात्पर्य यह कि 'जगत् अशरीर ईश्वरका बनाया हुआ है, कार्य होनेसे घटकी तरह' इस अनुमानमें घट दृष्टान्त और जगत् दार्टान्तिकमें समता नहीं है, क्योंकि घट सशरीरीका बनाया हुआ माना जाता है। तथा जिस तरह अशरीरी आकाश कोई कार्य आदि नहीं कर सकता, उसी तरह अशरीरो ईश्वर भी कार्य करनेमें असमर्थ है।) इस कारण सशरीर और अशरीर दोनों पक्षोंमें कार्यत्व हेतुको सकर्तृकत्व साध्यके साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती।
तथा, तुम्हारे मतसे कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है। क्योंकि जगतरूप धर्मी ( साध्य ) के एक देश, इस कालमें उत्पन्न वृक्ष, विद्युत्, मेघ आदि किसी कर्ताके बनाये हुए नहीं देखे जाते हैं, इसलिए यहाँ प्रत्यक्षसे बाधित धर्मीके अनन्तर हेतुका कथन किया गया है, अतएव यह हेतु दोषपूर्ण है। अतएव कोई जगत्का कर्ता नहीं है। तथा ईश्वरके जगत्कर्तृत्व साधनमें जो एकत्व आदि विशेषण दिये गये हैं वे सब नपुंसकके प्रति स्त्रियोंके रूप-लावण्य आदिका कथन करनेके समान हैं। फिर भी इन विशेषणोंपर कुछ विचार किया जाता है।
१. शपथैन विभावनीयः।