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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ न चैनावता जगद्गुरोरसामथ्र्यसन्भावना । न हि कालदष्टमनुज्जीवयन समुज्जीवितेतरदृष्टको विषभिपगुपालम्भनीयः, अतिप्रसङ्गात् । स हि तेपामेव दोपः । न खलु निखिलभुवनाभोगमवभामयन्तोऽपि भावनीया भानवः' कौशिक लोकस्यालोकहेतुतामभजमाना उपालम्भसम्भावनाम्पदम् । तथा च श्रीसिद्धसेनः "सद्धर्मवीजवपनानघकौशलस्य यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेप्विह तामसेपु सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ अथ कथमिव तत्कुहवाकानां विडम्वनारूपत्वम् इति । सः । यत्तावदुक्तं परैः 'क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्तृकाः, कार्यत्वाद् घटवदिति । तद्युक्तम् । व्याप्तेरग्रहणात् । “साधनं हि सर्वत्र व्याप्ती प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गमयेत्” इति सर्ववादिसम्बादः। स चायं जगन्ति मृजन सशरीरोऽशरीरो वा म्यान् ? सशरीरोऽपि किमस्मदादिवद् दृश्यशरीरविशिष्टः, उत पिशाचादिवश्यझरीरविशिष्टः ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षवाधः; तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात् प्रमेयत्वादिवत् साधारणानेकान्तिको हेतुः॥ करता है। तथा जैसे कानोंमें भग हुआ निर्मल जल भी महान् पीडाको उत्पन्न करनेवाला होता है, वैसे ही गुरुओंके वचन भी अभव्य जीवको क्लेश उत्पन्न करनेवाले होते हैं।" इसलिये वास्तवमें भगवान् दुराग्रही पुरुपोंके उपदेष्टा हो नहीं सकते। ___ इस कथनसे तोन लोकके गुरु भगवान्की असमर्थता प्रगट नहीं होती, क्योंकि सामान्य साँसे डसे हुए प्राणियोंको जिलानेवाला विपवैद्य यदि कालसर्पसे डसे हुए प्राणीको न जिला सके, तो यह वैद्यका दोप नहीं है । यह दोप कालसर्पसे डसे हुए मनुप्यका ही है, क्योंकि कालसर्पके विपपर यंत्र-मंत्र आदि भी प्रभाव नहीं डाल सकते। इसी तरह यदि भगवान् अभव्योंको उपदेश न दे सकें, तो यह दोप भगवान्का नहीं है। यह दोप अभव्योंका ही है, क्योंकि तीव्र कपायसे मलिन अभव्योंकी आत्माओंपर उपदेशका कुछ असर नहीं होता। सम्पूर्ण विश्वमण्डलको प्रकाशित करनेवाली सूर्यको किरणें यदि उल्लुओंके प्रकाशका कारण नहीं हो सकें, तो यह सूर्यको किरणोंका दोप नहीं है । सिद्धसेन आचार्यने भी कहा है "हे लोकवान्धव, उत्तम धर्मके बीज बोने में आप अत्यन्त कुशल हैं, फिर भी आपका उपदेश बहुतसे लोगोंको नहीं लगता, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि अन्धकारमें फिरनेवाले उल्लू आदि पक्षियोंको सूर्यको किरणे भौरोंके चरणों के समान कृष्ण वर्णको हो दिखाई पड़ती है।" जैन-न्याय-वैशेपिकोंकी विडम्बनाओंकों दुराग्रहरूप बताते हुए ग्रन्थकार न्याय-वैशेपिकोंके कार्यत्व हेतुका विस्तारसे खण्डन करते हैं । वैशेपिकोंने जो कहा है, 'पृथिवी आदि किसी बुद्धिमान कर्ताके बनाये हुए हैं, कार्य होनेसे, घटकी तरह यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि इस अनुमानमें व्याप्तिका ग्रहण नहीं होता। "प्रमाण द्वारा व्याप्तिके सिद्ध होनेपर ही साधनसे साध्यका ज्ञान होता है" यह सर्ववादियों-द्वारा सम्मत है। प्रश्न होता है, कि ईश्वरने शरीर धारण करके जगत्को बनाया है, अथवा शरीर रहित होकर ? यदि ईश्वरने शरीर धारण करके जगत्को बनाया है, तो वह शरीर हम लोगोंकी तरह दृश्य था अथवा पिशाच आदिकी तरह अदृश्य ? यदि वह शरीर हमारी तरह दृश्य था, तो इसमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है। हमें ऐसा कोई दृश्य शरीरवाला ईश्वर दिवाई नहीं देता जो घास, वृक्ष, इन्द्रधनुप, बादल आदिकी सृष्टि करता हो । इसलिये 'जहाँ-जहाँ कार्यत्व है वहां-वहाँ सशरीरकर्तृत्व है' यह व्याप्ति नहीं बनती। कार्यत्व हेतु यहाँ साधारण अनेकान्तिक हेत्वाभास है। (जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्षमें रहता है उसे साधारण अनैकान्तिक कहते हैं। जैसे 'पर्वत अग्निवाला है, प्रमेय होनेसे। यहां प्रमेयत्व हेतु अग्निरूप साध्यके धारक पर्वत पक्षमें रहता है, महानसरूप सपक्षमें रहता है, और पर्वतसे भिन्न साध्यके अभावरूप जलाशय आदि विपक्षमें भी रहता है। इसलिये प्रमेयत्वहेतु १. भानवः किरणाः । २. घूकसमुदायस्य । ३. अनुसं क्षेत्रं खिलशब्देनाभिधीयते । ४. द्वितीयद्वात्रिंशिका श्लोक १३ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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