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अन्य. यो. व्य. श्लोक ६]
स्याद्वादमञ्जरी तदेवमेकत्वादिविशेपणविशिष्टो भगवानीश्वरस्त्रिजगत्कर्तेति पराभ्युपगममुपदर्य उत्तरार्धन तस्य दुष्टत्वमाचटे । इमाः-एताः, अनन्तरोक्ताः, कुहेवाकविडम्बनाः-कुत्सिता हेवाकाःआग्रह विशेषाः कुहेवाकाः कदाग्रहा इत्यर्थः । त एव विडम्बनाः विचारचातुरीबाह्यत्वेन तिरस्काररूपत्वाद् विगोपकप्रकाराः । स्युः-भवेयुः। तेषां प्रामाणिकापसदानाम् । येषां हे स्वामिन त्वं नानुशासकः-न शिक्षादाता॥
___ तदभिनिवेशानां विडम्बनारूपत्वज्ञापनार्थमेव पराभिप्रेतपुरुषविशेषणेषु प्रत्येकं तच्छब्दप्रयोगमसूयागर्भमाविर्भावयाञ्चकार स्तुतिकारः। तथा चैवमेव निन्दनीयं प्रति वक्तारो वदन्ति । स मूर्खः स पापीयान् स दरिद्र इत्यादि । त्वमित्येकवचनसंयुक्तयुष्मच्छब्दप्रयोगेण परमेशितुः परमकारुणिकतयानपेक्षितस्वपरपक्षविभागमद्वितीयं हितोपदेशकत्वं ध्वन्यते ॥ ___अतोऽत्रायमाशयः । यद्यपि भगवानविशेपेण सकलजगज्जन्तुजातहितावहां सर्वेभ्य एव देशनावाचमाचष्टे, तथापि सैव केषाश्चिद् निचितनिकाचितपापकर्मकलुषितात्मनां रुचिरूपतया न परिणमते । अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तत्वेनायोग्यत्वात् । तथा च कादम्बयाँ बाणोऽपि बभाण-"अपगतमले हि मनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सखमपदेशगुणाः । गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य" इति । अतो वस्तुवृत्त्या न तेषां भगवाननुशासक इति ॥
उत्तरपक्ष-'इमाः कुहेवाकविडम्बनाः-इस प्रकारको कुत्सित आग्रहरूप विडम्बनाएँ विचाररहित होनेके कारण तिरस्कारके योग्य हैं । अप्रामाणिक लोगोंकी ये विडम्बनाएँ अपने दोषोंको छिपानेके लिए ही हैं। ऐसे लोगोंके उपदेष्टा, हे स्वामिन, आप नहीं हो सकते ।
न्याय-वैशेषिकोंकी मान्यताको विडम्बना सिद्ध करनेके लिए ही श्लोकमें न्याय-वैशेषिकों द्वारा अभीष्ट ईश्वरके प्रत्येक विशेषणोंके साथ 'तत्' शब्दका प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार वक्ता लोग किसी निन्दनीय पुरुषको कहते हैं कि वह मूर्ख है, वह पापी है, वह दरिद्र है, आदि; उसी प्रकार यहाँ भी ईश्वरके लिए कहा गया है, कि वह जगत्का कर्ता है, वह एक है, वह नित्य है, आदि । श्लोकमें युष्मत् (त्वं) शब्दके प्रयोगसे परम दयालु होनेके कारण पक्षपातकी भावना रहित जिनेन्द्र भगवान्का अद्वितीय हितोपदेशकत्व ध्वनित होता है।
भाव यह है कि यद्यपि भगवान् सामान्यरूपसे सम्पूर्ण प्राणियोंको हितोपदेश करते हैं, परन्तु वह उपदेश पूर्व जन्ममें उपार्जन किये हुए निकाचित (जिस कर्मको उदारणा. संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षणरूप अवस्थाएं न हो सकें उसे निकाचित कर्म कहते हैं ) पापकर्मोसे मलिन आत्मावाले प्राणियोंको सुखकर नहीं लगता। कारण कि इस प्रकारके पापो जोव अपुनर्बन्धक (जो जीव तीव्र भावोंसे पाप नहीं करता है तथा जिसकी मुक्ति पुद्गलपरावर्तनमें हो जाती है। उसे अपुनर्बन्धक करते हैं।) ( देखिए परिशिष्ट [क]. आदि जीवोंसे भिन्न हैं, इसलिये उपदेशके पात्र नहीं हैं। बाणने भी कादम्बरीमें कहा है-"जिस प्रकार निर्मल स्फटिक मणिमें चन्द्रमाको किरणोंका प्रवेश होता है, उसी तरह निर्मल चित्तमें उपदेश प्रवेश
१. उदये संकममुदये चउसुवि दादं कमेण णो सक्कं । उवसंतं च णित्ति णिकाचिदं होदि जं कम्मं । छाया-उदये संक्रमोदययोः चतुर्वपि दातुं क्रमेण नो शक्यम् । उपशान्तं च निधत्तिः निकाचितं यत् कर्म ॥
(गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ४४०) २. 'पावं ण तिब्वभावा कुणइ ण बहुमन्नई भवं घोरम् ।
उच्चिमठ्ठिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुण्णबन्धोत्ति' । छाया-पापं न तीव्रभावात् करोति न बहुमन्यते भवं घोरम् ।
उचितार्थं च सेवते सर्वत्रापि अपुनर्वन्धक इति ॥ इति धर्मसंग्रहे तृतीयाधिकरणे । ३. बाणभट्टकृतकादम्बरी पूर्वार्ध, पृ० १०३, पं०१०।