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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ स चैक इति । चः पुनरर्थे । स पुनः-पुरुपविशेपः; एकः-अद्वितीयः । बहूनां हि विश्वविधातृत्वस्वीकारे परस्परविमतिसम्भावनाया अनिवार्यत्वाद् एकैकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्यत इति ॥ तथा स सर्वग इति । सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः-सर्वव्यापी। तस्य हि प्रतिनियतदेशवर्तित्वेऽनियतदेशवृत्तीनां विश्वत्रयान्तर्वर्तिपदार्थसार्थानां यथावन्निर्माणानुपपत्तिः । कुम्भकारादिपु तथा दर्शनाद् । अथवा सर्व गच्छति जानातीति सर्वगः-सर्वज्ञः “सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः” इति वचनात् । सर्वज्ञत्वाभावे हि यथोचितोपादानकारणाद्यनभिज्ञत्वाद् अनुरूपकार्योत्पत्तिर्न स्यात् ॥ तथा स स्ववशः-स्वतन्त्रः, सकलप्राणिनां स्वेच्छया सुखदुःखयोरनुभावनसमर्थत्वात् । तथा चोक्तम् "ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। ___ अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः॥" पारतन्त्र्ये तु तस्य परमुखप्रेक्षितया मुख्यकर्तृत्वव्याघाताद् अनीश्वरत्वापत्तिः ।। तथा स नित्य इति । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः। तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाद्यतया कृतकत्वप्राप्तिः । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इत्युच्यते । यश्चापरस्तकर्ता कल्प्यते, स नित्योऽनित्यो वा स्यात् ? नित्यश्चेत् अधिकृतेश्वरेण किमपराद्धम । अनित्यश्चेत्, तस्याप्युत्पादकान्तरेण भाव्यम् । तस्यापि नित्यानित्यत्वकल्पनायाम् अनवस्थादौस्थ्यमिति ॥ (१) वह पुरुषविशेष एक अर्थात् अद्वितीय ('एक' ) है। क्योंकि यदि बहुतसे ईश्वरोंको संसारका कर्ता स्वीकार किया जाय, तो एक दूसरेकी इच्छामें विरोध उत्पन्न होनेके कारण एक वस्तुके अन्य रूपमें निर्माण होनेसे संसारमें असमञ्जस उत्पन्न हो जायेगा। (२) ईश्वर सर्वव्यापी ('सर्वग') है। यदि ईश्वरको नियत प्रदेशमें ही व्याप्त माना जाय, तो अनियत स्थानोंके तीनों लोकोंके समस्त पदार्थोकी ययारीति उत्पत्ति सम्भव न होगी। जैसे कुम्भकार एक प्रदेशमें रहकर नियत प्रदेशके घटादिक पदार्थको ही बना सकता है, वैसे ही ईश्वर भी नियत प्रदेशमें रहकर अनियत प्रदेशके पदार्थोंकी रचना नहीं कर सकता। अथवा, ईश्वर सब पदार्थों को जाननेवाला ( 'सर्वज्ञ') है। क्योंकि कहा है “गत्यर्थक धातु ज्ञानार्थक होती है"। यदि ईश्वरको सर्वज्ञ न मानें, तो यथायोग्य उपादान कारणोंके न जाननेके कारण वह ईश्वर अनुरूप कार्योंकी उत्पत्ति न कर सकेगा। (३) ईश्वर स्वतन्त्र ('स्ववश') है, क्योंकि वह अपनी इच्छासे ही सम्पूर्ण प्राणियोंको सुख-दुखका अनुभव कराने में समर्थ है। कहा भी है ____ "ईश्वर द्वारा प्रेरित किया हुआ जीव स्वर्ग और नरकमें जाता है । ईश्वरकी सहायताके बिना कोई अपने सुख-दुःख उत्पन्न करने में स्वतन्त्र नहीं है।" ईश्वरको परतन्त्र स्वीकार करनेमें उसके परमुखापेक्षी होनेसे, मुख्य कर्तृत्वको बाधा पहुँचेगी जिससे कि उसका ईश्वरत्व ही नष्ट हो जायेगा। (४) ईश्वर अविनाशी, अनुत्पन्न और स्थिररूप 'नित्य' है। ईश्वरको अनित्य माननेमैं एक ईश्वर दूसरे ईश्वरसे उत्पन्न होगा, इसलिए वह कृतक-अपने स्वरूपकी सिद्धिमें दूसरेको अपेक्षा रखनेवाला-हो जायगा । तथा ईश्वरका जो कोई दूसरा कर्ता मानोगे, वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो एक ही ईश्वरको नित्य क्यों नहीं मान लेते । यदि ईश्वरका कर्ता अनित्य है, तो उस अनित्य कर्ताका कोई दूसरा उत्पादक होना चाहिए। फिर वह कर्ता नित्य होगा या अनित्य ? इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। १. 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः' हेमहंसगणिसमुच्चितहेमचन्द्रव्याकरणस्थन्यायः ४४ इति ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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