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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ ] स्याद्वादमञ्जरी २९ न चायमसिद्धो' हेतुः । यतो भूभूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया अवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव । नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा । विपक्षादत्यन्तव्यावृत्तत्वात् । नापि कालात्ययापदिष्टः । प्रत्यक्षानुमानागमाबाधितधर्मधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् । नापि प्रकरणसमः' तत्प्रतिपन्थिधर्मोपपादनसमर्थप्रत्यनुमानाभावात् ॥ न च वाच्यम् ईश्वरः पृथ्वीपृथ्वीधरादेर्विधाता न भवति; अशरीरत्वात्, निर्वृत्तात्मवत्, इति प्रत्यनुमानं तद्बाधकमिति । यतोऽत्रेश्वररूपो धर्मी प्रतीतोऽप्रतीतो वा प्ररूपितः ? न तावदप्रतीतः, हेतोराश्रयासिद्धिप्रसङ्गात् । प्रतीतश्चेत्, येन प्रमाणेन स प्रतीतस्तेनैव किं स्वयमुत्पादितस्वतनुर्न प्रतीयते । इत्यतः कथमशरीरत्वम् । तस्मान्निरवद्य एवायं हेतुरिति ॥ उक्त हेतु असिद्ध नहीं है । क्योंकि अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेके और अवयवी होनेके कारण पृथिवी, पर्वत आदिका कार्यत्व सभी वादियोंने स्वीकार किया है । यह हेतु अनैकान्तिक ( व्यभिचारी ) अथवा विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसकी विपक्ष से अत्यन्त व्यावृत्ति है । ( जिस हेतुकी विपक्षमें भी अविरुद्ध वृत्ति हो, अर्थात् जो हेतु विपक्षमें भी चला जाय उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं । जैसे घड़ा ठण्डा है, क्योंकि मूर्तिक है । यहाँ मूर्तित्वकी व्याप्ति ठण्डा और गरम दोनोंके साथ है, अर्थात् मूर्तित्व हेतु विपक्ष (गरम) में भी चला जाता है, इसलिए दूषित है। यहाँ कार्यत्व हेतुकी विपक्ष अर्थात् आकाश आदिसे व्यावृत्ति है, इसलिए यह हेतु अनैकान्तिक नहीं है । इसीलिए कार्यत्व हेतु विरुद्ध भी नहीं है । जिस हेतुका अविनाभावसम्बन्ध साध्यसे विरुद्ध के साथ निश्चित हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं । जैसे शब्द परिवर्तनशील है, क्योंकि उत्पत्तिवाला है । यहाँ उत्पत्तिकी व्याप्ति परिवर्तनशीलता के साथ है, जो साध्यसे विरुद्ध है । प्रस्तुत कार्यत्व हेतु अपने साध्य बुद्धिमत्कर्तृत्व के साथ अविनाभावसम्बन्धसे रहता है, इसलिए विरुद्ध नहीं है । ) कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट भी नहीं है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुमान और आगमसे अबाधित, धर्म और धर्मीके सिद्ध हो जानेपर प्रतिपादन किया गया है— अर्थात् पहले प्रमाणसिद्ध धर्म-धर्मीका कथन करके बादमें हेतुका कथन किया गया है। यह हेतु प्रकरणसम भी नहीं है, क्योंकि यहाँ कोई बाधक प्रत्यनुमान नहीं है। (जहाँ साध्यके अभावका साधक कोई दूसरा अनुमान मौजूद हो उसे प्रकरणसम कहते हैं । यहाँ कार्यत्व हेतुके प्रतिकूल बुद्धिमत् कर्तृकत्व धर्मको सिद्ध करनेवाला कोई प्रत्यनुमान नहीं है ।) प्रतिवादी - 'ईश्वर पृथिवी, पर्वत आदिका कर्ता नहीं है, क्योंकि वह अशरीरी है, मुक्तात्माकी तरह ' - यह प्रत्यनुमान उक्त कार्यत्व हेतुका बाधक है, इसलिए कार्यत्वहेतु प्रकरणसम हेत्वाभाससे दूषित है । वैशेषिक—यह शंका ठीक नहीं। क्योंकि 'ईश्वर पृथिवी, पर्वत आदिका कर्ता नहीं है' - इस वाक्य में ईश्वररूप धर्मी प्रतीत है, अथवा अप्रतीत ? यदि धर्मी अप्रतीत हो, तो हेतु आश्रयासिद्ध होगा; अर्थात् जब धर्मी ही अप्रतीत है तब अशरीरत्व हेतु कहाँ रहेगा ? यदि कहो कि उक्त अनुमानमें ईश्वर प्रतीत है तो जिस प्रमाणसे ईश्वर प्रतीत है; उसी प्रमाणसे यह क्यों नहीं मानते कि ईश्वर स्वयं उत्पन्न किये हुए शरीरको ही धारण करता है । अर्थात् ईश्वरको प्रतीत ( जाना हुआ ) माननेसे क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ईश्वरने अपना शरीर स्वयं बनाया है, और वह जगत्को बनाने में समर्थ है । इसलिए ईश्वरको शरीररहित नहीं कह सकते । अतएव ईश्वरके कर्तृत्वमें हमारा दिया हुआ कार्यत्व हेतु असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष है । १. अयं साध्यसमशब्देनाभिधीयते । 'साध्याविशिष्टः साध्यत्वात्साध्यसमः' । गौतमसूत्रे । १-२-८ । २. 'अनैकान्तिकः सव्यभिचारः ' । गौतमसूत्र १-२-५ । ३. ' सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्ध:' । गौतमसूत्रे १-२-६ । ४. ' कालात्ययापदिष्टः कालातीतः । गौतमसूत्र १-२-९ । ५. ' यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः ' । गौतमसूत्र १-२-७ ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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