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श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ६ अथ तदभिमनमीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगमं मिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपयन्नाहकर्तास्ति कश्चिजगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥६॥
जगतः-प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य, कश्चिद्-अनिर्वचनीयम्वरूपः पुम्पविशेपः, कर्ता-स्रष्टा, अस्ति-विद्यते । ते हि इत्थं प्रमाणयन्ति । उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्व. बुद्धिमत्कर्तृकं, कार्यत्वात् ; यद् यत् कार्य तत् तत्सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं, यथा घटः, तथा चेदं, तम्मान् तथा । व्यतिरेके व्योमादि । यश्च बुद्धिमांस्तत्कर्ता स भगवानीश्वर एवेति ॥ उत्तर प्रदेशोंके साथ संयोग होनेस उत्पाद, तथा पूर्वोत्तर दोनों पर्यायोंमें आकाश द्रव्यके मौजूद रहनेसे ध्रौव्य अवस्थाएं पायी जाती है । इमलिए द्रव्यको अपेक्षा आकाश नित्य है, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य । दूसरे गब्दोंमें, जैनसिद्धान्तके अनुसार, द्रव्य और पर्याय कथंचित्-भिन्न हैं और कथंचित्-अभिन्न । जिस प्रकार बिना द्रव्यके पर्याय नहीं रह सकती, उसी तरह बिना पर्यायके द्रव्य नहीं रह सकते । परन्तु वैशेपिक लोग कुछ पदार्थोको सर्वथा नित्य मानते हैं और कुछको सवथा अनित्य । इसीलिए वैशेपिकों द्वारा मान्य 'अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिररूप' नित्यका लक्षण न स्वीकार करके जैन लोग 'पदार्थक भावका नष्ट नहीं होना' ही नित्यत्वका लक्षण मानते है।
इस श्लोकको व्याख्यामें टीकाकार मल्लिपेणने निम्न विषयोंपर भी विचार किया है।
(१) अन्धकार तेजकी ही एक पर्यायविशेष है, सर्वथा अभावरूप नहीं है। जैनदर्शनके अनुसार प्रकाशकी तरह तम भी चक्षुका विषय है। इसलिए जैनशास्त्रोंमें अन्धकारको पौद्गलिक-स्पर्श, रस, गन्ध
और वर्णयुक्त-स्वीकार किया गया है। जैन लोगोंका कहना है कि यदि वैशेषिक लोग दीपककी प्रभाको पौद्गलिक मानते है, तो उन्हे अन्धकारको पुद्गलकी पर्याय मानने में क्या आपत्ति है ?
(२) पदार्थको एकान्त-नित्य अथवा एकान्त-अनित्य स्वीकार करनेसे उसमें अर्थक्रियाकारित्व अर्थात वस्तुत्व ही सिद्ध नहीं होता। इस विपयको नाना ऊहापोहात्मक विकल्पोंके साथ टीकाकारने विस्तारपूर्वक प्रतिपादित किया है।
(३) नित्यानित्यके सिद्धान्तको दूसरे वादी भी रूपान्तरसे स्वीकार करते है। उदाहरणके लिए, वैशेपिक लोग पृथ्वीको नित्य और अनित्य दोनों मानते है; तथा एक ही अवयवीके चित्ररूपकी कल्पना करते हैं। बौद्ध लोग भो एक ही चित्रपटमें नोल-अनील धर्मोको मानते है। इसी तरह पातंजलमतके अनयायी धर्म, लक्षण और अवस्थाको धर्मीसे भिन्न और अभिन्न मानते हैं।
अव, वैशेपिकों द्वारा मान्य ईश्वरके जगत्कर्तृत्वमें दूपण देते हुए कहते हैं
श्लोकार्थ-हे नाथ, जो अप्रामाणिक लोग 'जगत्का कोई कर्ता है (१) वह एक हैं, (२) सर्वव्यापी है, (३) स्वतन्त्र है और (४) नित्य है' आदि दुराग्रहसे परिपूर्ण सिद्धान्तोंको स्वीकार करते हैं, उनका तू अनुशास्ता नहीं हो सकता।
व्याख्यार्थ-पूर्वपक्ष-'जगतः कश्चित् कर्ता अस्ति'-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे जाने हुए स्थावर और जंगमरूप तीनों विश्वका अनिर्वचनीय स्वरूप कोई पुरुपविशेप सृष्टिकर्ता है। इसमें निम्नलिखित प्रमाण दिया गया है-'पथिवी, पर्वत, वृक्ष अ.दि पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ताक बनाये हुए हैं, क्योकि ये कार्य है। जो जो कार्य होते है वे सब किसी बुद्धिमान् कर्ताके बनाये हुए होते हैं. जैसे घट पृथिवी, पर्वत आदि भी कार्य है, इसलिए ये भी बुद्धिमान् कर्ताके बनाये हुए होने चाहिए'। व्यतिरेक रूपमें-'आकाश आदि कार्य नहीं है, इसलिए किसी बुद्धिमान कर्ताका बनाया हुआ भी नहीं है।' जो कोई इन पदार्थोका बुद्धिमान् कर्ता है वह भगवान् ईश्वर हो है।