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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ५1 स्याद्वादमञ्जरी "भागे सिंहो नरो भागे योऽर्थो भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन नरसिंह प्रचक्षते" ।। इति ।। वैशेपिकैरपि चित्ररूपस्यैकस्यावयविनोऽभ्युपगमात् एकस्यैव पटादेश्वलाचलरक्तारक्तावृतानावृतत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलब्धः। सौगतैरप्येकत्र चित्रपटीज्ञाने नीलानीलयोर्विरोधानङ्गीकारात् ।। ___ अत्र च यद्यप्यधिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तरावस्थायित्वात् क्षणिकं न मन्यन्ते तन्मते पूर्वापरान्तावच्छिन्नायाः सत्ताया एवानित्यतालक्षणात् , तथापि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपन्नाः इति तदधिकारेऽपि क्षणिकवादचर्चा नानुपपन्ना। यदापि च कालान्तरावस्थायि वस्तु तदापि नित्यानित्यमेव । क्षणोऽपि न खलु सोऽस्ति यत्र वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं नास्ति ।। इति काव्यार्थः ।।५।। "एक भागमें सिंह दूसरे भागमें नर, इस प्रकार दो भागोंको धारण करनेसे भागरहित नृसिंहावतारको नरसिंह कहा जाता है।" (भाव यह है कि जिस प्रकार नृसिंहावतार एक भागमें नर है और दूसरेमें मनुष्य है, अर्थात् नर और सिंहकी दो विरुद्ध आकृतियोंको धारण करता है, और फिर भी नृसिंहावतार नृसिंह नामसे कहा जाता है, उसी तरह नित्य-अनित्य दो विरुद्ध धर्मोंके रहनेपर भी स्याद्वादके सिद्धान्तमें कोई विरोध नहीं आता है।) इसी तरह वैशेषिक लोग भी एक अवयवोको ही चित्ररूप (परस्पर विरुद्धरूप ) तथा एक ही पटको चल और अचल, रक्त और अरक्त, आवृत और अनावृत आदि विरुद्ध धर्मयुक्त स्वीकार करते हैं। बौद्धोंने भी एक ही चित्रपटी ज्ञानमें, नील और अनोलमें विरोधका होना स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि वैशेषिक लोगोंने दीपक आदिको एक क्षणके बाद कालान्तरमें स्थायी माना है, इसलिए उसे क्षणिक स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि उनके मतमें पूर्व और अपर अन्तसे अवच्छिन्न सत्ताको अनित्य कहा है (बौद्धोंकी तरह क्षण-क्षणमें होनेवाले अभावको नहीं), फिर भी वैशेषिक लोगोंने बुद्धि, सुख आदिको क्षणिक स्वीकार किया ही है । अतएव यहाँपर क्षणिकवादको चर्चा अप्रासंगिक नहीं समझनी चाहिए। (नोट-वैशेषिक लोग बुद्धि, सुख आदिको क्षणिक मानते हैं, इससे मालूम होता है कि वैशेपिक लोग अर्धबौद्ध गिने जाते थे। इसीलिए शंकराचार्यने उन्हें अर्ध-वैनाशिक अर्थात् अर्ध-बौद्ध कहकर सम्बोधन किया हैप्रो० ए० बी० ध्रुव-स्याद्वादमञ्जरी, पृ० ५४)। वैशेषिक लोग जिस तरह बुद्धि, सुख आदिको सर्वथा क्षणिक मानते हैं वैसे ही वे लोग बहुतसे पदार्थों को सर्वथा नित्य भी स्वीकार करते है। परन्तु वस्तुको नित्य-अनित्य मानना ही ठीक है। क्योंकि जो वस्तु एक क्षणसे दूसरे क्षणमें रहनेवाली है, वह नित्यानित्य ही होती है। इसी तरह ऐसा कोई भी क्षण नहीं जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य न होते हों। यह श्लोकका अर्थ है ॥५॥ भावार्थ-जैनदर्शनमें प्रत्येक पदार्थ कथंचित्-नित्य और कथंचित्-अनित्य माना गया है। साधारणतः दीपक अनित्य और आकाश नित्य माना जाता है । परन्तु जैनदर्शनके अनुसार दीपकसे लेकर आकाश तक, अर्थात् छोटेसे लेकर बड़े तक सब पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप है, और इसीलिए नित्य-अनित्य है। जिस समय दीपकके तेज परमाणु तमरूप पर्यायमें परिवर्तित होते हैं, उस समय तेज परमाणुओंका व्यय होता है, तमरूप पर्यायका उत्पाद होता है, तथा दोनों अवस्थाओंमें द्रव्यरूप दीपक मौजूद रहता है। इसलिए द्रव्यको अपेक्षा दीपक नित्य है, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य । इसी प्रकार आकाश भी नित्य-अनित्य है । क्योंकि जिस समय आकाशमें रहनेवाले जीव-पुद्गल आकाशके एक प्रदेशको छोड़कर दूसरे प्रदेशके साथ संयुक्त होते हैं, उस समय आकाशके पूर्व प्रदेशोंसे जीव-पुद्गलोंके विभाग होनेको अपेक्षासे आकाशमें व्यय,
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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