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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ _ अथ य एव एकत्रोपादानभावः स एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद इष्यते । तर्हि नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः कार्यसाङ्कयं च कथमिष्यते क्षणिकवादिना। अथ नित्यमेकरूपत्वादक्रम; अक्रमाञ्च क्रमिणां नानाकार्याणां कथमुत्पत्तिः इति चेत् , अहो स्वपक्षपाती देवानांप्रियः यः खलु स्वयमेकस्माद् निरंशाद् रूपादिक्षणात् कारणाद् युगपदनेककार्याण्यङ्गीकुर्वाणोऽपि परपक्षे नित्येऽपि वस्तुनि क्रमेण नानाकार्यकरणेऽपि विरोधमुद्भावयति । तस्माद् क्षणिकस्यापि भावस्याक्रमेणार्थक्रिया दुर्घटा । इत्यनित्यैकान्तादपि क्रमाक्रमयोव्यापकयोनिवृत्त्यैव व्याप्यार्थक्रियापि व्यावर्तते। तद्वथावृत्तौ च सत्त्वमपि व्यापकानुपलब्धिवलेनैव निवर्तते । इत्येकान्तानित्यवादोऽपि न रमणीयः॥ स्याद्वादे पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा । न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माध्यासायोगादसन स्याद्वाद इति वाच्यम् , नित्यानित्यपक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्याङ्गोक्रियमाणत्वात् । तथैव च सर्वैरनुभवात् । तथा च पठन्ति यदि कहो कि जो स्वभाव एक स्थानमें उपादानभाव होकर रहता है, वही दूसरे स्थानमें सहकारीभाव हो जाता है, इसलिए हम पदार्थमें स्वभावका भेद नहीं मानते, तो क्षणिकवादी नित्य और एकरूप क्रमसे नाना कार्य करनेवाले पदार्थका स्वभावभेद और कार्यसंकरत्व कैसे स्वीकार करते हैं ? ( तात्पर्य यह है कि बौद्ध लोग नित्य पदार्थके मानने में जो दोष देते हैं कि 'यदि नित्य पदार्थ क्रमसे एक स्वभावसे अर्थक्रिया करे, तो वह एक ही समयमें अपने सब कार्य कर लेगा, इस कारण कार्यसंकरता ( सब कार्योकी अभिन्नता) हो जायेगी, और यदि अनेक स्वभावोंसे अर्थक्रिया करे, तो स्वभावका भेद हो जानेके कारण नित्य पदार्थ क्षणिक सिद्ध होगा', सो ठीक नहीं । क्योंकि बौद्ध भी एक क्षणिक पदार्थसे उपादान और सहकारी भावों द्वारा कार्यको उत्पत्ति मानकर स्वभावका भेद मानते हैं।) यदि कहा जाय कि नित्य पदार्थ एक रूप होनेसे क्रम रहित हैं, और अक्रम पदार्थसे अनेक क्रमसे होनेवाले पदार्थोकी कैसे उत्पत्ति हो सकती है ? तो यह बौद्धोंका पक्षपात मात्र है। क्योंकि बौद्ध लोग एक और अंश रहित रूप आदि क्षण कारणसे एक साथ अनेक कार्योंको स्वीकार करके भी, नित्य वस्तुमें क्रमसे नाना कार्योंकी उत्पत्तिमें विरोध खड़ा करते हैं। अर्थात् बौद्ध लोग निरंश पदार्थ हो-से अनेक कार्योंको उत्पत्ति मानते हैं, फिर वे नित्य पदार्थमें क्रमसे अनेक कार्योंकी उत्पत्तिमें क्यों दोप देते हैं ? अतएव क्षणिक पदार्थमें अक्रमसे भी अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए एकान्त-अनित्य पदार्थमें क्रम-अक्रम व्यापकोंकी निवृत्ति होनेसे व्याप्य अर्थक्रिया भी नहीं बन सकती। तथा अर्थक्रियाको निवृत्ति होनेपर पदार्थमें व्यापककी अनुपलब्धि हो ही जाती है। इससे क्षणिक पदार्थके अस्तित्वका भी अभाव हो जाता है। ( तात्पर्य यह है कि जैन लोग सर्वथा नित्यत्ववादकी तरह सर्वथा अनित्यत्ववादको भी नहीं मानते हैं। उनका कहना है, कि एकान्त-अनित्य पदार्थमें क्रम-अक्रमसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती। एकान्त-अनित्यमें क्रमसे अर्थक्रिया इसलिए नहीं बन सकती, कि एकान्त-क्षणिक पदार्थ क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाला है। इसीलिए सर्वथा क्षणिक पदार्थों में देशकृत अथवा कालकृत क्रम सम्भव नहीं है । तथा क्षणिक पदार्थमें अक्रमसे भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती। क्योंकि यदि क्षणिक पदार्थोमें अक्रमसे अर्थक्रिया हो, तो एक ही क्षणमें समस्त कार्य हो जाया करेंगे, फिर दूसरे क्षणमें कुछ भी करनेको बाको न रहेगा । अतएव दूसरे क्षणमें वस्तुके अर्थक्रियासे शून्य होनेके कारण वस्तुको अवस्तु मानना पड़ेगा।) अतएव एकान्त-अनित्यत्ववादको भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। स्याद्वाद सिद्धान्तके स्वीकार करनेमें पूर्व आकारका त्याग, उत्तर आकारका ग्रहण, और पूर्वोत्तर दोनों दशाओंमें पदार्थके ध्रुव रहनेके कारण पदार्थोंमें अर्थक्रिया माननेमें कोई विरोध नहीं आता। यदि कहो कि एक ही पदार्थमें परस्पर दो विरुद्ध धर्म कैसे सम्भव हैं, तो हमारा उत्तर है कि स्याद्वादमें एकान्तनित्य और एकान्त-अनित्यसे विलक्षण तीसरा ही पक्ष स्वीकार किया गया है। क्योंकि स्याद्वादमें प्रत्येक वस्तु किसी अपेक्षासे नित्य और किसी अपेक्षासे अनित्य स्वीकार को गयी है। यह नित्यानित्यरूप सबके अनुभवमें भी आता है । कहा भी है
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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