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________________ २४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायस्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि. समवायस्य न नियतसम्बन्धिसम्बन्धत्वम् । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते ॥ नाप्यक्रमेण । नटेको भावः सकलकालकलाकलापभाविनीयुगपत् सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकम् । कुरुतां वा, तथापि द्वितीयक्षणे किं कुर्यात् । करणे वा, क्रमपक्षभावी दोषः। अकरणे त्वर्थ क्रयाकारित्वाभावाद् अवस्तुत्वप्रसङ्गः। इत्येकान्तनित्यात् क्रमाक्रमाभ्यां व्याप्तार्थक्रिया व्यापकानुपलब्धिवलाद् व्यापकनिवृत्तौ निवर्तमाना स्वव्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति । अर्थक्रियाकारित्वं च निवर्तमान स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयति। इति नैकान्तनित्यपक्षो युक्तिक्षमः॥ एकान्तानित्यपक्षोऽपि न कक्षीकरणाहः। अनित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी स च न क्रमेणार्थक्रियासमर्थः देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाभावात् । क्रमो हि पौर्वापर्यम्, तच्च क्षणिकस्यासम्भवि । अवस्थितस्यैव हि नानादेशकालव्याप्तिः देशक्रमः कालक्रमश्चाभिधीयते । न चैकान्तविनाशिनि सास्ति । वैसी को वैसी ही रहीं। तथा उपकार और समवायका अभेद माननेपर समवाय और उपकार एक हो ठहरे, और फिर तो सहकारियोंने उपकार नहीं किया, किन्तु समवायने ही किया-ऐसा कहना चाहिए। यदि समवाय और उपकार भिन्न हैं, तो नियत सम्बन्धियोंके साथ समवायका सम्बन्ध नहीं हो सकता । ( अभिप्राय यह है कि उपकार और समवायके भेद माननेमें दोनोंका संयोग सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि संयोग सम्बन्ध द्रव्योंमें ही होता है। यदि दोनोंमें समवाय सम्बन्ध माना जाय तो समवाय व्यापक है, इसलिए नियत सम्बन्धियोंके साथ समवाय सम्बन्ध भी नहीं बन सकता । ) अतएव एकान्त नित्यमें क्रमसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती। नित्य पदार्थ अक्रमसे भी अर्थक्रिया नहीं करता है। क्योंकि एक पदार्थ समस्त कालमें होनेवाली अर्थक्रियाको एक ही समयमें कर डाले, यह अनुभवमें नहीं आता। अथवा यदि नित्य पदार्थ अक्रमसे अर्थक्रिया करे भी, तो वह दूसरे क्षणमें क्या करेगा? यदि कहो कि दूसरे क्षण में भी वह अर्थक्रिया करता है तो जो दोष क्रमसे अर्थक्रिया करनेमें आते हैं, वे सब दोष यहाँ भी आयेंगे। यदि कहा जाय कि नित्य पदार्थ दूसरे क्षणमें कुछ भी नहीं करता, तो दूसरे क्षणमें अर्थक्रियाकारित्वका अभाव होनेसे नित्य पदार्थ अवस्तु ठहरेगा। इस प्रकार व्यापककी अनुपलब्धिके कारण व्यापककी निवृत्ति हो जानेसे विरत हो जानेवाली क्रम और अक्रमसे व्याप्त ऐसी अर्थक्रिया अपने व्याप्य अर्थक्रियाकारित्वको भी निवृत्ति कर देती है । तथा निवृत्त होनेवाला अर्थक्रियाकारित्व अपने व्याप्य पदार्थकी भी निवृत्ति कर देता है। अतः एकान्त-नित्य पदार्थमें क्रम और अक्रमसे अर्थक्रिया नहीं बनती। तथा वस्तुमें अर्थक्रियाकारित्वके नष्ट हो जानेपर वस्तुका अस्तित्व ही नहीं रहता । ( तात्पर्य यह है कि पदार्थको सर्वथा-नित्य स्वीकार करने में नित्य पदार्थमें अर्थक्रियाकारित्व सम्भव नहीं है। और अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तुका लक्षण कहा गया है। इसलिए नित्य पदार्थमें अर्थक्रियाकारित्वके अभाव होनेसे नित्य पदार्थ अवस्तु ठहरता है। क्रम और अक्रम दोनों ही तरहसे सर्वथा नित्य पदार्थमें अर्थक्रिया नहीं बन सकती। नित्य पदार्थमें क्रमसे अर्थक्रिया हो तो यह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। क्योंकि नित्य पदार्थ सर्वदा समर्थ है, फिर वह दूसरे क्षण में होनेवाली क्रियाओंको एक ही साथ न करके क्रमक्रमसे क्यों करता है ? नित्य पदार्थमें अक्रमसे अर्थक्रिया मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि नित्य पदार्थ समस्त कालमें होनेवाली क्रियाओंको एक ही समयमें कर डाले, ऐसी प्रतीति नहीं होती। थोड़ी देरके लिए यदि यह सम्भव भी हो, तो नित्य पदार्थ दूसरे क्षणमें क्या काम करेगा? इस प्रकार क्रम और अक्रम दोनों पक्ष दोपपर्ण हैं। ) अतएव वस्तुका एकान्त-नित्यत्व स्वीकार करना युक्तियुक्त नहीं है। एकान्त-नित्यकी तरह पदार्थको एकान्त-अनित्य स्वीकार करना भी योग्य नहीं। क्योंकि अनित्य
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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