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अन्य. यो. व्य. श्लोक ५]
स्याद्वादमञ्जरी न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वभवत् तानपेक्षत इति चेत्, तत् किं स भावोऽसमर्थः, समर्थो वा ? समर्थश्चेत्, किं सहकारिसुखप्रेक्षणदीनानि तान्यपेक्षते न पुनर्झटिति घटयति । ननु समर्थमपि वीजम् 'इलाजलानिलादिसहकारिसहितमेवाङ्करं करोति, नान्यथा । तत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत, न वा ? यदि नोपक्रियेत, तदा सहकारिसन्निधानात् प्रागिव किं न तदाप्यर्थक्रियायामदास्ते । उपक्रियेत चेत् सः, तर्हि तैरुपकारोऽभिन्नो, भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यम् । अभेदे स एव क्रियते । इति लाभमिच्छतों मूलक्षतिरायाता कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वापत्तेः॥
भेदे तु कथं तस्योपकारः, किं न सह्यविन्ध्याद्ररपि। तत्सम्बन्धात् तस्यायमिति चेत्, उपकार्योपकारयोः कः सम्वन्धः ? न तावत् संयोगः, द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु उपकार्य द्रव्यम् , उपकारश्च क्रियेति न संयोगः । नापि समवायः, तस्यैकत्वात् व्यापकत्वाच्च प्रत्यासत्तिविप्रकर्पाभावेनसर्वत्रतुल्यत्वाद्न नियतैः सम्बन्धिभिः सम्बन्धो युक्तः । नियतसम्बन्धि-सम्बन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कुत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः। तथा च सति उपकारस्य
अब यदि कहा जाय कि नित्य पदार्थ स्वयं सहकारी कारणोंकी अपेक्षा नहीं करते, परन्तु सहकारी कारणोंके अभावमें नहीं होनवाला कार्य ही सहकारी कारणोंको अपेक्षा रखता है, तो प्रश्न होता है कि वह नित्य पदार्थ समर्थ है या असमर्थ ? यदि वह समर्थ है तो वह सहकारी कारणोंके मुंहकी तरफ़ क्यों देखता है ? क्यों झटपट कार्य नहीं कर डालता? यदि कहो कि जिस प्रकार बीजके समर्थ होते हुए भी बीज पृथिवी, जल, वायु आदिके सहयोगसे ही अंकुरको उत्पन्न करता है, अन्यथा नहीं; इसी प्रकार नित्य पदार्थ समर्थ होते हुए भी सहकारियोंके बिना कार्य नहीं करता। तो प्रश्न होता है, कि सहकारी कारण नित्य पदार्थका कुछ उपकार करते हैं या नहीं ? यदि सहकारी कारण नित्य पदार्थका कुछ उपकार नहीं करते हैं तो वह नित्य पदार्थ जैसे सहकारी कारणोंके सम्बन्धके पहले अर्थक्रिया करनेमें उदास था, वैसे ही सहकारियोंके संयोग होनेपर भी क्यों उदास नहीं रहता? यदि कहो कि सहकारी नित्य पदाथका उपकार करते है, तो प्रश्न होता है कि यह उपकार पदार्थसे अभिन्न है या भिन्न ? यदि सहकारी पदार्थसे अभिन्न ही उपकार करते हैं तो सिद्ध हुआ कि नित्य पदार्थ ही अर्थक्रियाको करता है। इस प्रकार लाभकी इच्छा रखनेवाले वादीके मूलका भी नाश हो जाता है । क्योंकि यदि नित्य पदार्थ सहकारियोंको अपेक्षा रखेगा तो वह कृतक हो जायेगा और कृतक होनेसे वह नित्य नहीं रह सकता।
यदि सहकारियोंका उपकार पदार्थसे भिन्न है, तो भेदत्व सामान्यसे सह्य-विन्ध्यके साथ भी उस भिन्नउपकारका सम्बन्ध क्यों नहीं मानते ? ( अर्थात् यदि सहकारियोंके उपकारसे नित्य पदार्थ सर्वथा भिन्न है तो यह नहीं मालूम हो सकता कि वह उपकार नित्य पदार्थका ही है। ऐसी हालतमें सह्य और विन्ध्यका भी उपकार माना जा सकता है, क्योंकि सहकारियों तथा सह्य और विन्ध्यमें भी भेद है।) यदि कहो, कि नित्य पदार्थके साथ उपकारके सम्बन्धसे यह उपकार इस नित्य पदार्थका है-ऐसी प्रतीति होती है, तो प्रश्न होता है कि उपकार्य और उपकार दोनोंमें कौनसा सम्बन्ध है ? उपकार और उपकार्य में संयोग सम्बन्ध बन नहीं सकता, क्योंकि दो द्रव्योंमें ही संयोग-सम्बन्ध होता है। यहाँपर उपकार्य द्रव्य है, और उपकार क्रिया है, इसलिए संयोग-सम्बन्ध सम्भव नहीं। उपकार्य और उपकारमें समवाय-सम्बन्ध भी नहीं बन सकता। क्योंकि समवाय एक है और व्यापक है। इसलिए समवाय न किसी पदार्थ से दूर है और न समीप, वह सब पदार्थोंमें समान है । अतएव नियत सम्बन्धियोंके साथ समवायका सम्बन्ध मानना ठीक नहीं। यदि नियतसम्बन्धियोंके साथ समवायका सम्बन्ध स्वीकार किया जाय तो सहकारियोंसे किये हुए उपकारको भी समवायका उपकार मानना चाहिए । तथा इस तरह उपकारके विषयमें जो भेद अभेद कल्पनाएँ की गयी थीं, वे
१. पृथिवी । २. यदा कश्चिद्वा(षिः स्वद्रव्यं कुसीदेच्छयाधमाय प्रयच्छति । तेनाधमणेन न मलद्रव्यं न वा कुसीदं प्रत्यावर्त्यते तदायं न्यायः समापतति । वृद्धिमिच्छतो मूलद्रव्यक्षतिरुत्पन्नेत्यर्थः ।