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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ इति वचनात् ।। लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेराकाशस्य नित्यानित्यत्वम् । घटाकाशमपि हि यदा घटापगमे, पटेनाक्रान्तं, तदा पटाकाशमिति व्यवहारः । न चायमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । नभसो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं तत् तदाधेयघटपटादिसम्बन्धिनियतपरिमाणवशात् कल्पितभेदं सत् प्र तनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादि तत्तद्वयपदेशनिबन्धनं भवति । तत्तत्घटादिसम्बन्वे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नोऽवस्थान्तरापत्तिः । ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदः । तासां ततोऽविष्वग्भावात् । इति सिद्धं नित्यानित्यत्वं व्योम्नः॥ ( भाव यह है कि जैनोंको वैशेषिकोंका नित्यत्व लक्षण मान्य नहीं है । वैशेषिकोंके अनुसार, जिसमें उत्पत्ति और नाश न हो और जो सदा एकसा रहे, वही नित्य है। जैन इस मान्यताको स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार, उत्पाद और व्ययके होते हुए भी पदार्थके स्वरूपका नाश नहीं होना ही नित्यत्व है। जैनसिद्धान्तके अनुसार वैशेषिकोंका नित्यत्व लक्षण स्वीकार करनेसे उत्पाद और व्ययको कोई स्थान नहीं मिलता। क्योंकि कूटस्थ नित्यत्वमें उत्पत्ति और नाशका होना सम्भव नहीं। तथा उत्पाद और व्ययके अभावसे कोई भी पदार्थ 'सत्' नहीं कहा जा सकता। इसलिए जैन लोग कहते है कि नित्यत्वको सर्वथा नित्य न मानकर उत्पाद-व्यय सहित नित्य अर्थात् आपेक्षिक-नित्य मानना चाहिए। क्योंकि कहीं भी द्रव्य और पर्याय अलग-अलग नहीं पाये जाते । द्रव्यको छोड़कर पर्यायका और पर्यायको छोड़कर द्रव्यका अस्तित्व सम्भव नहीं। अतएव द्रव्यको अपेक्षासे पदार्थ नित्य है और पर्यायको अपेक्षासे अनित्य; इस तरह नित्य-अनित्य दोनों साथ रहते हैं। इसीलिए आकाश भी नित्यानित्य है।) प्रकारान्तरसे भी आकाश नित्यानित्य है, क्योंकि सर्वसाधारणमें भी 'यह घटका आकाश है', 'यह पटका आकाश है' यह व्यवहार होता है। जिस समय घटका आकाश घटके दूर हो जानेपर पटसे संयुक्त होता है, उस समय वही घटका आकाश पटका आकाश कहा जाता है। यह 'घटका आकाश', 'पटका आकाश' का व्यवहार उपचारसे होता है, इसलिए अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उपचार भी किसी न किसी साधर्म्यसे ही मुख्य अर्थको द्योतित करनेवाला होता है। आकाशका सर्वव्यापकत्व मुख्य परिमाण आकाशमें रहनेवाले घट-पटादि सम्वन्धी नियत परिमाणसे भिन्न होकर, प्रतिनियत प्रदेशोंमें व्यापक होनेसे ही घटाकाश, पटाकाश आदि व्यवहारका कारण होता है। अर्थात् मुख्यरूपसे सर्वव्यापकत्व परिमाणबाला आकाश अपने आधेय घट पटादिके सम्बन्धसे प्रतिनियत देशव्यापित्व परिमाणरूप कहा जाता है। इसीसे यह घटाकाश है, यह पटाकाश है. यह व्यवहार होता है। तथा व्यापक आकाशके अमुक घट पट आदिके सम्बन्धसे एक अवस्थासे अवस्थान्तरको उत्पत्ति होती है। अवस्थाभेद होनेपर अवस्थाके धारक आकाशमें भेद होता है। क्योंकि ये अवस्थायें आकाशसे अभिन्न है। ( भाव यह है कि जिस समय घट एक स्थानसे ( आकाशसे ) अलग होता है, और उसको जगह पट रखा जाता है, तो यह घटका आकाश है. यह पटका आकाश है, इस प्रकारका व्यवहार होता है। अर्थात् आकाशमें एक ही जगह घटाकाशका नाश होता है, और पटाकाशकी उत्पत्ति होती है। इसलिए आकाशमें नित्यानित्य दोनों धर्म विद्यमान है। यह घटाकाश और पटाकाशका व्यवहार औपचारिक है अर्थात् वास्तवमें आकाशमें उत्पाद-विनाश नहीं होता, केबल आकाशके आधेय घट पटादिके परिवर्तनसे ही आकाशमें परिवर्तन होनेका व्यवहार होता है, यह शंका ठोक नहीं। क्योंकि मुख्य अर्थक सम्बन्धके बिना उपचार नहीं हो सकता। प्रस्तुत प्रसंगमें आकाशका सर्वव्यापकत्व मुख्य परिमाण है। यही मुख्य परिमाण आकाशके आधेय घट पटादिके सम्बन्धसे प्रतिनियत देशपरिमाणरूप कहा जाता है। इसीसे घटाकाश, पटाकाश आदि व्यवहार होता है। अतएव
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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