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________________ २१ अन्य. यो. व्य. श्लोक ५] स्याद्वादमञ्जरी स्वायंभुवा अपि हि नित्यानित्यमेव वस्तु प्रपन्नाः। तथा चाहुस्ते-"त्रिविधः खल्वयं धर्मिणः परिणामो धर्मलक्षणावस्थारूपः। सुवर्णं धर्मि । तस्य धर्मपरिणामो वर्धमानरुचकादिः । धर्मस्य तु लक्षणपरिणामोऽनागतत्वादिः। यदा खल्वयं हेमकारो वर्धमानकं भक्त्वा रुचकमारचयति तदा वर्धमानको वर्तमानतालक्षणं हित्वा अतीततालक्षणमापद्यते । रुचकस्तु अनागततालक्षणं हित्वा वर्तमानतालक्षणमापद्यते । वर्तमानतापन्न एव तु रुचको नवपुराणभावमापद्यमानोऽवस्थापरिणामवान् भवति । सोऽयं त्रिविधः परिणामो धर्मिणः। धर्मलक्षणावस्थाश्च धर्मिणो भिन्नाश्चाभिन्नाश्च । तथा च ते धर्म्यभेदात् तन्नित्यत्वेन नित्याः। भेदाच्चोत्पत्तिविनाशविपयत्वम् । इत्युभयमुपपन्नमिति ॥" अथोत्तरार्धं वित्रियते । एवं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वे सर्वभावानां सिद्धेऽपि तद्वस्तु एकमाकाशात्मादिकं नित्यमेव अन्यच्च प्रदीपघटादिकमनित्यमेव इत्येवकारोऽत्रापि सम्बध्यते । इत्थं हि दुर्नयवादापत्तिः । अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मसमर्थनप्रवणाः शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्त्तमाना दुर्नया इति तल्लक्षणात् । इत्यनेनोल्लेखेन त्वदाज्ञाद्विषतांभवत्प्रणीतशासनविरोधिनां, प्रलापाः-प्रलपितानि, असम्बद्धवाक्यानीति यावत् ॥ अत्र च प्रथममादीपमिति परप्रसिद्धयानित्यपक्षोल्लेखेऽपि यदुत्तरत्र यथासंख्यपरिहारेण पूर्वतरं नित्यमेवैकमित्युक्तम् तदेवं ज्ञापयति । यद नित्यं तदपि नित्यमेव कथञ्चित् । यच्च नित्यं तदप्यनित्यमेव कथञ्चित् । प्रक्रान्तवादिभिरप्येकस्यामेव पृथिव्यां नित्यानित्यत्वाभ्युपगमात् । सर्वव्यापी आकाशके साथ घट पट आदिका सम्बन्ध होनेपर आकाशको अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है । आकाशको अवस्थाओंमें परिवर्तन होनेसे आकाशमें परिवर्तन होता है। इसलिए आकाशको नित्य-अनित्य ही मानना चाहिए ।) पातंजलयोगको माननेवाले भी वस्तुको नित्यानित्य स्वीकार करते हैं। उनका कथन है-"धर्मीका परिणाम धर्म, लक्षण और अवस्थाके भेदसे तीन प्रकारका है। धर्मी सुवर्णका धर्म-परिणाम वर्धमान रुचक आदि है । धर्मके आगामी कालमें होनेको लक्षण-परिणाम कहते हैं। जिस समय सुनार वर्धमानकको तोड़कर रुचक बनाता है, उस समय वर्धमानक वर्तमान लक्षणको छोड़कर अतीत लक्षणको, तथा रुचक अनागत लक्षणको छोड़कर वर्तमान लक्षणको प्राप्त करता है। वर्तमान दशाको प्राप्त रुचक नये और पुरानेपनको धारण करता हुआ धर्मीका अवस्था-परिणाम कहा जाता है। धर्म, लक्षण और अवस्थाके भेदसे धर्मीका यह परिणाम धर्मीसे भिन्न भी है, और अभिन्न भो। धर्म, लक्षण और अवस्था धर्मीसे अभिन्न हैं, इसलिए धर्मीके नित्य होनेसे ये भी नित्य हैं, और धर्मीसे भिन्न होनेके कारण, उत्पन्न और नाश होनेवाले हैं इसलिए अनित्य हैं । इस प्रकार धर्म, लक्षण और अवस्था नित्य-अनित्य दोनों हैं।" अब श्लोकके उत्तरार्धका विवेचन करते हैं। इस प्रकार सब पदार्थोंके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सिद्ध होनेपर आकाश, आत्मा आदि सर्वथा नित्य हैं और प्रदीप, घट आदि सर्वथा अनित्य-यह मानना दुर्नयवादको स्वीकार करना है। वस्तुके अनन्तधर्मात्मक होनेपर भी सब धर्मोका तिरस्कार करके केवल अपने अभीष्ट नित्यत्व आदि धर्मोका हो समर्थन करना दुर्नय है। इस उल्लेखसे यह प्रतिपादित किया है कि आपके द्वारा प्रणीत शासनके विरोधियोंके ये असंबद्ध वाक्य ही हैं। इस श्लोकके पूर्वार्धमें ग्रन्थकारने अनित्य दीपक और नित्य व्योमका क्रमसे उल्लेख किया है। परन्तु उत्तरार्धमें इस क्रमका उल्लंघन करके पहले नित्य और बादमें अनित्यका उल्लेख है। इस तरह पूर्वार्धमें जो क्रमसे अनित्य और नित्य है, वहो उत्तरार्धमें क्रमसे नित्य और अनित्य प्रतिपादित किया गया है। इस शंका १. पातञ्जलयोगानुसारिणः । २. पातञ्जलयोगसूत्र ३।१३ इत्यत्रतदर्थक वाक्यजातम् । ३. निःशेषांशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषां। वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्त श्रुतासंगिनः ।। औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाश्चेदेकांशकलङ्कपङ्ककलुषास्ते स्युस्तदा दुर्नयाः ॥१॥ इति नयदुर्नययोर्लक्षणं श्रीउमा-स्वातिकृतपञ्चाशती ग्रन्थे ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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