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________________ १९ अन्य. यो. व्य. श्लोक ५ ] स्याद्वादमञ्जरी तथा च यद् "अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्" इति नित्यलक्षणमाचक्षते । तदपास्तम् । एवंविधस्य कस्यचिद्वस्तुनोऽभावात् । “तद्भावाव्ययं नित्यम्" इति तु सत्यं नित्यलक्षणम् । उत्पादविनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भावात् अन्वयिरूपात् यन्न व्येति तन्नित्यमिति तदर्थस्य घटमानत्वात् । यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणं नित्यमिष्यते तदोत्पादव्यययोर्निराधारत्वप्रसङ्गः। न च तयोर्योगे नित्यत्वहानिः। "द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः। क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा'? ॥ उस समय आकाशका जीव-पुद्गलोंके साथ एक प्रदेशमें विभाग और दूसरे प्रदेशमें संयोग होता है। ये संयोग और विभाग एक दूसरेके विरुद्ध हैं। इसलिए संयोग-विभागमें भेद होनेसे, संयोग-विभागको धारण करनेवाले आकाशमें भी भेद होना चाहिए। कहा भी है "विरुद्ध धर्मोंका रहना और भिन्न-भिन्न कारणोंका होना यही भेद और भेदका कारण है।" ( यहाँपर लक्षण और कारणके भेदसे भेद दो प्रकारका बताया गया है। जैसे घट जल लाने और पट ठण्डसे बचानेके काममें आता है-यही घट और पटमें लक्षण-भेद है। तथा घट मृत्तिकाके पिण्ड और पट तन्तुसे उत्पन्न होता है-यही घट और पटका कारण-भेद है। ) इसलिए यहाँ पुद्गलके एक प्रदेशमें संयोगके विनाशसे आकाशमें व्यय होता है, और दूसरे प्रदेशमें संयोगके होनेसे आकाशमें उत्पाद होता है। तथा उत्पाद और व्यय दोनों अवस्थाओंमें आकाश ही एक अधिकरण है, इसलिए आकाश ध्रौव्य है। (भाव यह है कि जैनदर्शनके अनुसार दीपककी तरह आकाश भी नित्यानित्य है। जैनसिद्धान्तमें आकाश एक अनन्त प्रदेशवाला अखण्ड द्रव्य माना गया है। आकाश द्रव्यका काम जीव और पुद्गलको अवकाश देना है। जिस समय जीव और पुद्गल द्रव्य आकाशके एक प्रदेशको छोड़कर दूसरे प्रदेशके साथ संयोग करते हैं, उस समय आकाशका जीव-पुद्गलके साथ विभाग और संयोग होता है। अर्थात् जीव-पुद्गलके आकाश-प्रदेशोंको छोड़नेके समय आकाशमें विभाग और जीव-पुद्गलके आकाश-प्रदेशोंके साथ संयोग करनेके समय आकाशमें संयोग होता है। दूसरे शब्दोंमें कहना चाहिए कि एक ही आकाशमें संयोग-विभाग नामके दो विरुद्ध धर्म पाये जाते हैं। क्योंकि संयोग-विभाग नामके धर्मों में भेद होनेसे संयोगविभाग धर्मोको धारण करनेवाले आकाश धर्मीमें भी भेद पाया जाता है। अतएव जीव-पुद्गलके आकाशप्रदेशोंको छोड़कर अन्यत्र गमन करनेमें जीव-पुद्गलका आकाशके प्रदेशोंके साथ संयोगका विनाश होता है, अर्थात् आकाशमें विनाश ( व्यय ) होता है। तथा जीव-पुद्गलका आकाशके दूसरे प्रदेशोंके साथ संयोग होनेके समय आकाशमें उत्पाद होता है। तथा उक्त उत्पाद और व्यय दोनों दशाओंमें आकाश मौजूद रहता है, इसलिए आकाशमें ध्रौव्य भी है। अतएव आकाशमें उत्पाद-व्यय होनेसे अनित्यत्व और ध्रौव्य होनेसे नित्यत्वकी सिद्धि होती है।) इस पर्वोक्त कथनसे "जो नाश और उत्पन्न न होता हो, और एकरूपसे स्थिर रहे, उसे नित्य कहते हैं"-इस नित्यत्वके लक्षणका भी खण्डन हो जाता है। क्योंकि ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं, जो उत्पत्ति और नाशसे रहित हो, और सदा एकसा रहे । “पदार्थके स्वरूपका नाश नहीं होना नित्यत्व है"-जैनदर्शन द्वारा मान्य नित्यत्वका यही लक्षण ठोक है। क्योंकि उत्पाद और विनाशके रहते हुए भी जो अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता वही नित्य है। यदि अप्रच्युत आदि पूर्वोक्त नित्यका लक्षण माना जाये, तो उत्पाद और व्ययक कोई भी आधार न रहेगा । जैनसिद्धान्तके अनुसार नित्य पदार्यमें जो उत्पाद और व्यय माना गया है, उससे पदार्थकी नित्यतामें कोई हानि नहीं आती। कहा भी है "पर्यायरहित द्रव्य और द्रव्यरहित पर्याय किसने, किस समय, कहांपर, किस रूपमें, और कौनसे प्रमाणसे देखे हैं"? अर्थात् द्रव्य बिना पर्याय और पर्याय बिना द्रव्य कहों भो सम्भव नहीं। १. तत्त्वार्थसूत्रम् अ. ५ सू. ३० । २. एतदथिका गाथा सन्मतितकें प्रथमकाण्डे दृश्यते'दव्वं पज्जवविज्जु दम्वविउत्ता य पज्जवा नत्थि ॥१२॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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