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अन्य. यो. व्य. श्लोक ५]
स्याद्वादमञ्जरी परस्परनिरपेक्षपक्षस्तु पुरस्तान्निर्लोठयिष्यते । अत एव तेषां वादिनां स्खलनक्रिययोपहसनीयत्वमभिव्यज्यते । यो हि अन्यथास्थितं वस्तुस्वरूपमन्यथैव प्रतिपद्यमानः परेभ्यश्च तथैव प्रज्ञापयन् स्वयं नष्टः परान्नाशयति न खलु तस्मादन्य उपहासपात्रम् ॥ इति वृत्तार्थः ॥४॥
अथ तदभिमतानेकान्तनित्यपक्षौ दूषयन्नाह
आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिमेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वादाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥
आदीप-दीपादारभ्य, आव्योम-व्योम मर्यादीकृत्य; सर्ववस्तुपदार्थस्वरूपं। समस्वभावसमः तुल्यः, स्वभावः-स्वरूपं यस्य तत्तथा। किन्च वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति ब्रूमः। तथा च वाचकमुख्यः-"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति । समस्वभावत्वं कुतः। इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह-स्याद्वादमुद्रानतिभेदि-स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् । ततः स्याद्वादः-अनेकान्तवादः, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशवलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । तस्य मुद्रा-मर्यादा, तां नातिभिनत्ति-नातिक्रामतीति स्याद्वादमुद्रानतिभेदि । यथा हि न्यायैकनिष्ठे राजनि राज्यश्रियं शासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नातिवर्तितुमीशते, तदतिक्रमे तासां
व्यवहार भी न बन सकेगा, क्योंकि प्रमाणसे सामान्य-विशेष उभय रूप ही वस्तुको प्रतीति होती है। सामान्यविशेषकी परस्पर निरपेक्षताका आगे खण्डन किया जावेगा (देखिये १४ वीं कारिकाको व्याख्या)। इसीलिए वादियोंके स्खलनसे यहां उनके हास्यास्पद होने का सूचन किया गया है। जो पुरुष वस्तुके अमुक स्वरूपको उस रूपसे स्वीकार न करके अन्यथा रूपसे स्वीकार करता है, तथा दूसरोंको भी उसी तरह प्रतिपादन करता है, वह स्वयं नष्ट होता है, और दूसरोंको नष्ट करता है; ऐसा पुरुष हास्यका पात्र होता ही है । यह श्लोकका अर्थ है ॥४॥
भावार्थ-इस श्लोकमें वैशेषिक दर्शनके द्वारा मान्य सामान्य-विशेषका खण्डन किया गया है। वैशेषिकका कहना है कि सामान्य-विशेष पदार्थोसे भिन्न और एक दूसरेसे निरपेक्ष हैं। उदाहरणके लिए, वैशेषिक मतके अनुसार घटमें घटत्व समवाय सम्बन्धसे रहता है; तथा नील-पीतादि भी समवाय सम्बन्धसे रहता है। परन्तु जैनदर्शन अनेकान्तरूप है, इसलिए वह सामान्य-विशेषको पदार्थोंसे एकान्त-भिन्न स्वीकार नहीं करता । जैनदर्शनके अनुसार घटमें घटत्व अथवा नील-पीतादि किसी सम्बन्ध-विशेषसे नहीं रहते, ये स्वयं घटके ही गुण हैं । इसलिए पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेष नामके पदार्थोंको स्वीकार करनेकी आवश्यकता नहीं है।
अब वैशेषिकोंके एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्षमें दोष दिखाते हैं
इलोकार्थ-दीपकसे लेकर आकाश तक सभी पदार्थ नित्यानित्य स्वभाववाले हैं, क्योंकि कोई भी वस्तु स्याद्वादकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करती। ऐसी स्थितिमें भी आपके विरोधी लोग दीपक आदिको सर्वथा अनित्य और आकाश आदिको सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं।
व्याख्यार्थ-दीपसे लेकर आकाशपर्यन्त सब पदार्थों का स्वरूप एक-सा है। क्योंकि हम वस्तुके स्वभावको द्रव्य और पर्यायरूप मानते हैं। वाचकमुख्य कहते हैं-"जो उत्पाद, व्यय और धौव्यसे युक्त है वह सत है।" प्रतएव वस्तुका स्वभाव नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मोके धारक स्याद्वादको मर्यादाको उल्लंघन नहीं करता। जिस प्रकार न्यायी राजाके शासन करनेपर उसकी प्रजा राज्यमुद्राका उल्लंघन नहीं
१. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे अ. ५ सू. २९ ।