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रायचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ४ च धर्मा धर्मिणः सकाशादत्यन्तं व्यतिरिक्ताः । एकान्तभेदे विशेपणविशेष्यभावानुपपत्तेः, करभरासभयोरिव धर्मधर्मिव्यपदेशाभावप्रसङ्गाच्च । धर्माणामपि च पृथक्पदार्थान्तरत्वकल्पने एकस्मिन्नेव वस्तुनि पदार्थानन्त्यप्रसङ्गः। अनन्तधर्मकत्वाद् वस्तुनः ॥
तदेवं सामान्यविशेषयोः स्वतत्त्वं यथावदनवबुध्यमाना अकुशलाः अतत्त्वाभिनिविष्टदृष्टयः तीर्थान्तरीयाः स्खलन्ति-न्यायमार्गाद् भ्रश्यन्ति निरुत्तरीभवन्तीत्यर्थः। स्खलनेन चात्र प्रामाणिकजनोपहसनीयता ध्वन्यते। किं कुर्वाणाः, द्वयम्-अनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं प्रत्ययद्वयं वदन्तः। कस्मादेतत्प्रत्ययद्वयं वदन्तः ? इत्याह । परात्मतत्त्वात्-परौ पदार्थेभ्यो व्यतिरिक्तत्वादन्यौ परस्परनिरपेक्षौ च यो सामान्यविशेपौ तयोर्यदात्मतत्त्वं स्वरूपम् अनुवृत्तिव्यावृत्तिलक्षणं, तस्मात् तदाश्रित्येत्यर्थः । “गम्ययपः कर्माऽधारे” इत्यनेन पञ्चमी । कथंभूतात् परात्मतत्त्वाद् ? इत्याह । अतथात्मतत्त्वात् मा भूत् परात्मतत्त्वस्य सत्यरूपतेति विशेपणमिदम् । यथा येनैकान्तभेदलक्षणेन प्रकारेण परैः प्रकल्पितं, न तथा तेन प्रकारेणात्मतत्त्वं स्वरूपं यस्य तत्तथा । तस्मात् यतः पदार्थेष्वविष्वग्भावेन सामान्यविशेपौ वर्तेते । तैश्च तौ तेभ्यः परत्वेन कल्पितौ । परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्तभेदाविनाभावि ।।
___किञ्च, पदार्थेभ्यः सामान्य विशेपयोरेकान्तभिन्नत्वे स्वीक्रियमाणे एकवस्तुविषयमनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपं प्रत्ययद्वयं नोपपद्येत । एकान्ताभेदे चान्यतरस्यासत्त्वप्रसङ्गः। सामान्यविशेषव्यवहाराभावश्च स्यात् । सामान्यविशेपोभयात्मकत्वेनैव वस्तुनः प्रमाणेन प्रतीतः।
धर्मात्मक होती है। (भाव यह है कि वैशेषिक लोग द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेप और समवाय इन छह पदार्थोंको स्वीकार करते हैं। इन छह पदार्थों में सामान्य और विशेष नामक पदार्थ द्रव्य, गुण, कम आदिसे भिन्न माने गये हैं। दूसरे शब्दों, वैशेषिक मतके अनुसार, पदार्थोमें 'सामान्य-विशेष'का ज्ञान पदार्थोंका गुण (धर्म) नहीं है, बल्कि यह ज्ञान सामान्य और विशेष नामके भिन्न पदार्थोसे होता है। उदाहरणके लिए, घटत्व घटका गुण नहीं है, यह घटमें समवाय-सम्बन्धसे रहता है। इसी प्रकार नील-पीत आदि भी घटके गुण नहीं है, वे भी घटमें समवाय-सम्बन्धसे रहते हैं। जैनदर्शन अनेकान्तात्मक (सामान्यविशेषात्मक) है, इसलिए वह वैशेषिकोंके इस सिद्धान्तका खण्डन करता है। जैनदर्शनके अनुसार, पदार्थों में स्वभावसे ही सामान्य-विशेषको प्रतीति होती है। क्योंकि सामान्य-विशेष पदार्थों के ही गण हैं. कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं। धर्मीसे धर्म भिन्न नहीं हो सकता, अतएव सामान्य-विशेपको भिन्न पदार्थ स्वीकार करना अयुक्तियुक्त है)।
इस प्रकार सामान्य-विशेषके स्वरूपको ठीक-ठीक न समझकर कदाग्रही तैथिक लोग न्यायमार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं-निरुत्तर होनेके कारण प्रामाणिक मनुष्योंके हास्यास्पद होते है। कारण कि ये लोग सामान्य-विशेषको पदार्थोंसे भिन्न और परस्पर निरपेक्ष स्वीकार करते हैं। परन्तु यह मान्यता सत्य नहीं है। क्योंकि सामान्य-विशेष पदार्थोंमें अभिन्न रूपसे रहते हैं, और वैशेपिकोंने सामान्य-विशेषको पदार्थोसे एकान्त-भिन्न माना है। परन्तु जैनसिद्धान्तके अनुसार सामान्य-विशेप पदार्थोके स्वभाव हैं, क्योंकि गुणगुणीका एकान्त भेद नहीं बन सकता। जैनदर्शनमें सामान्य-विशेप पदार्थोंसे कथंचित् अभिन्न स्वीकार किये गये हैं।
तथा सामान्य-विशेषको पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न माननेपर एक वस्तुमें सामान्य और विशेष सम्बन्ध नहीं बन सकते। क्योंकि पदार्थोके सामान्य-विशेपसे एकान्त-भिन्न होनेके कारण पदार्थ और सामान्यविशेषका सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। यदि सामान्य-विशेषको पदार्थोंसे सर्वथा अभिन्न मानें, तो पदार्थ और सामान्य-विशेषके एकरूप हो जानेसे दोनोंमेसे एकका अभाव हो जायेगा। तथा, इस तरह सामान्य-विशेषका
१. कुत्सिताग्रहवन्तः । २. हैमसूत्रम् । २०७४ । ३. अपथग्भावेन ।