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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ४] स्याद्वादमञ्जरी. स्वतोऽनुवृत्तिव्यत्तिवृत्तिभाजो भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद् द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥४॥ अभवन् , भवन्ति, भविष्यन्ति, चेति भावाः-पदार्थाः, आत्मपुद्गलादयस्ते स्वत इति-सर्वं हि वाक्यं सावधारणमामनन्ति इति, स्वत एव-आत्मीयस्वरूपादेव । अनुवृत्तिव्यत्तिवृत्तिभाजः--एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चानुवृत्तिः, व्यतिवृत्तिः-व्यावृत्तिः, सजातीयविजातीयेभ्यः सर्वथा व्यवच्छेदः । ते उभे अपि संवलिते भजन्ते-आश्रयन्तीति अनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजः, सामान्यविशेषोभयात्मका इत्यर्थः ।। अस्यैवार्थस्य व्यतिरेकमाह । न भावान्तरनेयरूपा इति । नेति निषेधे । भावान्तराभ्यांपराभिमताभ्यां द्रव्यगुणकर्मसमवायेभ्यः पदार्थान्तराभ्यां भावव्यतिरिक्तसामान्यविशेषाभ्यां । नेयं-प्रतीतिविषयं प्रापणीयं । रूपं यथासंख्यमनुवृत्तिव्यतिवृत्तिलक्षणं स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः। स्वभाव एव ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययौ स्वत एव जनयन्ति । तथाहि । घट एव तावत् पृथुबुनोदराद्याकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृतः पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्याययन् सामान्याख्यां लभते । स एव चेतरेभ्यः सजातीयविजातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मानं व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेशमश्रुते । इति न सामान्यविशेषयोः पृथक्पदार्थान्तरत्वकल्पनं न्याय्यम् । पदार्थधर्मत्वेनैव तयोः प्रतीयमानत्वात् । न श्लोकार्थ-पदार्थ स्वभावसे ही सामान्य-विशेषरूप हैं, उनमें सामान्य-विशेषको प्रतीति करानेके लिए पदार्थान्तर माननेकी आवश्यकता नहीं। इसलिए जो अकुशलवादी पररूप और मिथ्यारूप सामान्यविशेषको पदार्थसे भिन्नरूप कथन करते हैं, वे न्यायमार्गसे भ्रष्ट होते हैं। व्याख्यार्थ-आत्मा और पुद्गलादि पदार्थ अपने स्वरूपसे ही अर्थात् सामान्य और विशेष नामक पृथक् पदार्थोंकी बिना सहायताके ही सामान्य-विशेषरूप होते हैं। एकाकार और एक नामसे कही जानेवाली प्रतीतिको अनुवृत्ति अथवा सामान्य कहते हैं। सजातीय और विजातीय पदार्थोसे सर्वथा अलग होनेवाली प्रतीतिको व्यावृत्ति अथवा विशेष कहते हैं । आत्मा और पुद्गल आदि पदार्थ स्वभावसे ही इन दोनों धर्मोसेसामान्य-विशेषसे युक्त हैं। इसोको व्यतिरेक रूपसे कहते हैं। आत्मा और पुद्गलादि पदार्थ, वैशेषिकों द्वारा मान्य द्रव्य, गुण, कर्म और समवायसे पृथक, सामान्य और विशेषसे भिन्न नहीं हैं। क्योंकि स्वयं ही सामान्य और विशेषरूप ज्ञानको उत्पन्न करना पदार्थोंका स्वभाव है। उदाहरणके लिए, मोटा, तलीयुक्त और उदर आदि आकारवाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृतिवाले अन्य पदार्थोंको भी घटरूप और घटशब्दरूप जनाता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है। इसलिए घटको छोड़कर घटसामान्य अथवा घटत्व कोई पृथक् वस्तु नहीं है। यही घड़ा दूसरे सजातीय और विजातीय पदार्थोसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे अपनी व्यावृत्ति करता हुआ 'विशेष' कहा जाता है। अतएव सामान्य और विशेषको अलग पदार्थ मानना न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि सामान्यविशेषका ज्ञान पदार्थके धर्म (गुण) से ही होता है। तथा धर्मी (गुणी) से धर्म (गुण) सर्वथा भिन्न नहीं होते । क्योंकि धर्म और धर्मीको सर्वथा भिन्न माननेसे विशेषण-विशेष्यसम्बन्ध नहीं बन सकता। उदाहरणके लिए, ऊंट और गधा दोनों सर्वथा भिन्न हैं, इसलिए इनमें धर्म-धर्मी-सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि धर्मको धर्मीसे अलग पदार्थ माना जाय, तो एक ही वस्तुमें अनन्त पदार्थ प्रस्तुत हो जायेंगे कारण कि वस्तु अनन्त १. अनुवृत्तिः-अन्वयः । व्यतिवृत्तिः-व्यतिरेकः । २. पूरणगलनधर्माणः पुद्गला (दशवैकालिकवृत्ति प्रथमाध्ययने)। ३. विशेषसंज्ञाम् ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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