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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ३ ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति ? नैवम् । परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात् । तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्बेनाभिमतत्वात् । न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम् "रूसउ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया" ॥२ उवाच च वाचकमुख्यः "न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्धया वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति" ॥ इति वृत्तार्थः ॥३॥ अथ यथावन्नयवर्त्मविचारमेव प्रपञ्चयितुं पराभिप्रेततत्त्वानां प्रामाण्यं निराकुर्वन्नादितस्तावत्काव्यषटकेनौलूक्यमताभिमततत्त्वानि दूषयितुकामस्तदन्तःपातिनौ प्रथमतरं सामान्यविशेषौ दूषयन्नाह शंका-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देनेका कष्ट उठाते हैं ? समाधान--यह बात नहीं है। परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषको रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते हैं। हितका उपदेश देनेके बरावर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है । आर्षवाक्य है "उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे, परन्तु स्वपक्ष हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए" उमास्वाति वाचकमुख्यने भी कहा है "सभी उपदेश सुननेवालोंको पुण्य नहीं होता है । परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हितका उपदेश देनेवालेको निश्चय ही पुण्य मिलता है ॥" यह श्लोकका अर्थ है ॥३॥ भावार्थ--एकान्तरूपसे वस्तु तत्त्वको स्वीकार करनेवाले अन्यमतावलम्बी आपके गुणोंमें ईर्ष्याबुद्धि रखते हुए आपको अपना इष्टदेव नहीं मानते। परन्तु यदि वे लोग एकान्तका आग्रह छोड़कर आप द्वारा प्रतिपादित न्यायमार्गका विचार करें, तो उन्हें आपकी महत्ता स्वयं ही प्रकट हो जायगी। अब यथार्थ नयमार्गका विचार करनेके लिए परमतावलम्बियों द्वारा मान्य तत्त्वोंके प्रामाण्यका निराकरण करनेके हेतु छह श्लोकोंमें वैशेषिकमतके तत्त्वोंमें दूषण बताते हुए सर्वप्रथम 'सामान्य-विशेष' में दोष दिखाते हैं। १. बोध्यछात्रविषयिणीम् । २. छाया-रुषतु वा परो मा वा विषं वा परिवर्तयतु ( विषवत् प्रतिभातु वा)। भाषितव्या हिता भाषा स्वपक्षगुणकारिका ॥ एतदर्थक एव श्लोको श्रीहेमचन्द्रकृतश्रेणिकचरित्रे द्वितीयसर्गे ३२ उपलभ्यते । तथाहि परो रुष्यतु वा मा वा विषवत् प्रतिभातु वा। भाषितव्या हिता भापा स्वपक्षगुणकारिणी ॥३२॥ ३. उमास्वातिः । अयमुमास्वामीत्यपि भण्यते । ४. तत्त्वार्थसूत्रसम्बन्धकारिकासु २९ श्लोकः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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