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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १ अन्यस्त्वाह । अमर्त्यपूज्यमिति न वाच्यम् । यावता यथोद्दिष्टगुणगरिष्ठस्य त्रिभुवनविभोरमर्त्यपूज्यत्वं न कथञ्चन व्यभिचरतीति । सत्यम् । लौकिकानां हि अमर्त्याः पूज्यतया प्रसिद्धाः, तेपामपि भगवानेव पूज्य इति विशेषणेनानेन ज्ञापयन्नाचार्यः परमेश्वरस्य देवाधिदेवत्वमावेदयति ।। एवं पूर्वार्धे चत्वारोऽतिशया उक्ताः॥ अनन्तविज्ञानत्वं च सामान्यकेवलिनामप्यवश्यंभावीत्यतस्तद्व्यवच्छेदाय श्रीवर्धमानमिति विशेष्यपदमपि विशेषणरूपतया व्याख्यायते । श्रिया चतुस्त्रिंशदतिशयसमृद्ध्यनुभवात्मकभावाऽर्हन्त्यरूपया वर्धमानं वर्धिष्णुम् । नन्वतिशयानां परिमिततयैव सिद्धान्ते प्रसिद्धत्वात्कथं वर्धमानतोपपत्तिः। इति चेत् , न । यथा निशीथचूर्णौ' भगवतां श्रीमदहतामष्टोत्तरसहस्रसङ्ग्यबाह्यलक्षणसङ्ख्ययाया उपलक्षणत्वेनान्तरङ्गलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तम् । एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरिमितत्वमविरुद्धम् । ततो नातिशयश्रिया वर्धमानत्वं दोपाश्रय इति ।। अतीतदोषता चोपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनामपि सम्भवतीत्यतः क्षीणमोहाख्याऽप्रतिपातिगुणस्थान प्राप्तिप्रतिपत्त्यर्थं जिनमिति विशेपणम् । रागादिजेतृत्वाद् जिनः, समूलकाषकअबाध्यसिद्धान्त विशेषण दिया है । मुण्डकेवली सिद्धान्तको रचना करनेमे ही असमर्थ हैं, फिर उस सिद्धान्तके अबाध्य होनेको बात हो नहीं। (घ) शंका-अमर्त्यपूज्य' विशेषणको क्या आवश्यकता है? क्योंकि उक्त गुणोंसे युक्त भगवान् देवों द्वारा पूजनीय होते ही हैं। समाधान-लौकिक पुरुष देवोंको ही पूज्य दृष्टिसे देखते हैं। ये देव भी भगवान्को ही पूज्य मानते हैं, यही सूचित करनेके लिए आचार्यमहोदयने भगवान्को देवाधिदेव कहा है। इस प्रकार पूर्वार्धके श्लोकमें चार अतिशयोंका वर्णन किया गया है। श्रीवर्धमान आदि विशेषणोंकी सार्थकता अनन्तविज्ञान सामान्यकेवलियोंमें भी पाया जाता है, अतएव सामान्यकेवलियोंके परिहारके लिए 'श्रीवर्धमान' विशेष्य होनेपर भी इसकी विशेषणरूपसे व्याख्या की गयी है। श्रीवर्धमान अर्थात् चौंतीस अतिशयोंकी ( देखिए परिशिष्ट [क]) समृद्धि भाव-अर्हन्तरूप लक्ष्मीसे बढ़े हुए। शंका-जैन-सिद्धान्तमें अतिशयोंकी संख्या सीमित (चौतोस ) है, फिर 'अतिशय समृद्धिसे बढ़े हुए' कहना ठीक नहीं है? समाधान-निशीथचूर्णि में श्रीअरहन्त भगवान्के एक हजार आठ बाह्य लक्षणोंको उपलक्षण मानकर सत्त्व आदि अन्तरंग लक्षणोंको अनन्त कहा गया है। इसी प्रकार उपलक्षणसे अतिशयोंको परिमित मानकर भी उन्हें अनन्त कहा जा सकता है, इसलिए कोई शास्त्रविरोध नहीं है। अतएव 'अतिशय लक्ष्मीसे बढ़े हुए' कहना दोषयुक्त नहीं है। 'अतीतदोषत्व' उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवालोंके भी सम्भव है, इसलिए अप्रतिपाति क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानकी प्राप्ति बतानेके लिए 'जिन' विशेषण दिया गया है। जिसने रागादि १. निशीथचूर्णिग्रन्थे १७ उद्देशे; उपाध्याय कविअमरमुनिना मुनिकन्हैयालालेन च सम्पादितः, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९५७-६० । २. गुणस्थानस्य चतुर्दशभेदा: १ मिच्छे २ सासण ३ मीसे ४ अविरय ५ देसे ६ पमत्त ७ अपमत्ते । ८ नियदि ९ अनियट्ठि १० सुहुमु ११ वसम १२ खीण १३ सजोगि १४ अजोगिगुणा । (द्वितीयकर्मग्रन्थे द्वितीय गाथा)। छाया-मिथ्यात्वसासादनमिश्रमविरतदेशं प्रमत्ताप्रमत्तम् । निवृत्त्यनिवृत्तिसूक्ष्मोपशमक्षोणसयोग्ययोगिगुणाः॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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