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अन्य. यो. व्य. श्लोक १]
स्याद्वादमञ्जरी
तथा — “ एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ "
ननु तर्ह्यबाध्य सिद्धान्तमित्यपार्थकम् । यथोक्तगुणयुक्तस्याव्यभिचारिवचनत्वेन तदुक्तसिद्धान्तस्य बाधाsयोगात् । न । अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् । निर्दोपपुरुषप्रणीत एवाबाध्यः सिद्धान्तः । नापरेऽपौरुषेयाद्याः असम्भवादिदोषाऽप्रातत्वात् इति ज्ञापनार्थम् । आत्ममात्रतारकमूकान्तकृत्केवल्यादिरूपमुण्डकेवलिनो यथोक्तसिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छेदार्थ वा विशेषणमेतत् ॥
"जो एकको जानता है, वह सबको जानता है, और जो सबको जानता है, वह एकको जानता है ।" तथा - " जिसने एक पदार्थको सब प्रकारसे देखा है, उसने सब पदार्थोको सब प्रकारसे देख लिया है । तथा जिसने सब पदार्थोंको सब प्रकारसे जान लिया है, उसने एक पदार्थको सब प्रकारसे जान लिया है ।" ( कहने का भाव यह है कि जबतक हम एक पदार्थका पूर्ण रीतिसे ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, उस समय तक हमें सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता । अतएव 'एक' और 'अनेक' सापेक्ष हैं; अर्थात् 'एक' का ज्ञान प्राप्त करना, 'अनेक' को जानना है। इसलिए अतीतदोष विशेषण के समान अनन्तविज्ञान विशेषण भी उतना ही आवश्यक है । इसीलिए वैशेषिक मतका निराकरण करनेके लिए अतीतदोष के साथ अनन्तविज्ञान विशेषण दिया गया है 1 )
(ग) शंका – 'अबाध्य सिद्धान्त' विशेषण देना व्यर्थ है। कारण कि जो पुरुष 'अनन्तविज्ञान' और 'अतीतदोष' है, उसके वचनोंमें कोई दोष नहीं होता, इसलिए उसका सिद्धान्त अबाध्य होगा ही । समाधानअबाध्यसिद्धान्त विशेषणका अभिप्राय है, कि निर्दोष पुरुष द्वारा निर्मित सिद्धान्त ही अबाध्य हैं; असम्भव आदि दोष युक्त होनेसे अपौरुषेय आदि - पुरुषके बिना निर्मित वेद आदि सिद्धान्त - दोषरहित नहीं हैं । अथवा, सिद्धान्तोंके रचनेमें असमर्थ, स्वयं अपना ही उद्धार करनेवाले मूक तथा अन्तकृत् मुण्डके वलियोंके ( देखिए परिशिष्ट [क] ) निराकरण करनेके लिए अबाध्यसिद्धान्त विशेषण दिया गया है। अबाध्य - सिद्धान्त विशेषणकी सार्थकता यहाँ दो प्रकारसे बतायी गयी है : (अ) निर्दोष पुरुष द्वारा निर्मित- सिद्धान्त ही बाधारहित हो सकता है, पुरुष बिना निर्मित ( अपौरुषेय) वेद अबाधित नहीं हो सकता । क्योंकि तालु आदिसे उत्पन्न वर्णोंके समूहको वेद कहते हैं, तथा तालु आदि स्थान मनुष्यजन्य हैं, अतएव वेदोंका अपौरुषेय मानना असम्भव दोषसे दूषित है । (आ) मुण्डकेवलियोंका निराकरण उक्त विशेषणकी दूसरी सार्थकता है । बाह्य अतिशयोंसे रहित, संसारसे वैराग्यभावको प्राप्त होकर जो केवल अपनी ही आत्माके उद्धारका प्रयत्न करते हैं, वे मुण्डकेवली कहे जाते हैं। ये केवली अन्तः कृत् और मूक दो प्रकारके होते हैं। दोनों ही केवली कर्मोके नाश करनेवाले और सम्पूर्ण पदार्थोके द्रष्टा होते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि अन्तः कृत् केवलीके संसारसे मुक्त होनेका समय बहुत नज़दीक रहता है, या कहना चाहिए कि मुक्त होनेके कुछ समय पहले ही अन्तः कृत् केवलीको केवलज्ञानकी प्राप्ति होती हैं; तथा मूककेवली किसी शारीरिक दोषके कारण उपदेश देनेमें असमर्थ होते हैं, इसलिए वे मौन रहते हैं । उक्त दोनों केवली किसी सिद्धान्तको रचना नहीं कर सकते हैं । यही कारण है, कि अतीतदोष और अनन्तविज्ञानके धारक होते हुए भी मुण्डकेवलियोंका निराकरण करनेके लिए ग्रन्थकारने
१. ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादि ततः कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥
२. (१) द्रव्यभावमुण्डन प्रधानस्तथाविधबा ह्यातिशयशून्यः केवली ।
(२) संविग्नो भवनिर्वेदादात्मनिःसरणं तु यः ।
आत्मार्थं संप्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥
(३) यः पुनः सम्यक्त्वावाप्तौ भवनैर्गुण्यदर्शनतस्तन्निर्वेदादात्मनिःसरणमेव केवलमभिवाञ्छति तथैव चेष्टते स मुण्डकेवली भवति इति ।