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________________ रायचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १ "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः॥" इति । तन्नूनं न तेऽतीतदोपाः। कथमन्यथा तेषां तीर्थनिकारदर्शनेऽपि भवावतारः॥ आह । यद्येवमतीतदोपमित्येवास्तु, अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते । दोषात्ययेऽवश्यंभावित्वादनन्तविज्ञानत्वस्य । न । कैश्चिद्दोषाभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च वैशेपिकवचनम् "सर्वं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते॥" तथा- "तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ।।" तन्मतव्यपोहार्थमनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमेव । विज्ञानानन्त्यं विना एकस्याप्यर्थस्य यथावत् परिज्ञानाभावात् । तथा चार्पम् ___जे एगं जाणइ,से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ॥" ___ "धर्मतार्थके प्रवर्तक ज्ञानी मोक्ष प्राप्त करते हैं, तथा अपने तीर्थका तिरस्कार होते देखकर वे फिर संसारमें चले आते हैं।" निश्चय ही ये ज्ञानी दोषोंसे रहित नहीं हैं। अन्यथा अपने तीर्थका तिरस्कार देख उन्हें संसारमें फिरसे आनेकी आवश्यकता न होती। आजीविकमतका निराकरण करनेके लिए यहाँ 'अतीतदोप' विशेषणदिया गया है। (ख) शंका-यदि ऐसा ही है, तो केवल 'अतीतदोप' विशेषण ही दिया जाय, 'अनन्तविज्ञान की क्या आवश्यकता है ? कारण कि दोषोंके नष्ट होनेपर अनन्तविज्ञानकी प्राप्ति अवश्यंभावी है। समाधानकितने ही वादी दोषोंके नाश होनेपर भी अनन्तविज्ञानकी प्राप्ति नहीं स्वीकार करते, अतएव 'अनन्तविज्ञान' विशेषण दिया गया है। वैशेषिकोंने कहा है "ईश्वर सब पदार्थोंको जाने अथवा न जाने, वह इष्ट पदार्थोको जाने, इतना ही बस है। यदि ईश्वर कीड़ोंकी संख्या गिनने बैठे तो वह हमारे किस कामका ?" तथा-"अतएव ईश्वरके उपयोगी ज्ञानकी ही प्रधानता है। क्योंकि यदि दूर तक देखनेवालेको हो प्रमाण माना जाय, तो फिर हमें गीध पक्षियोंको पूजा करनी चाहिये ।" तात्पर्य यह है, कि वैशेषिक लोग ईश्वरको अतीतदोप स्वीकार करके भी उसे सकल पदार्थोंका ज्ञाता नहीं मानते। इसलिए इस मतका निराकरण करनेके लिए ग्रन्थकारने अनन्तविज्ञान विशेषण दिया है, और यह विशेषण सार्थक ही है, क्योंकि अनन्तज्ञानके बिना किसी वस्तुका भी ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता। आगमका वचन है १ आचारांगसूत्रे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशे सूत्रम् १२२ । छाया-य एकं जानाति स सर्व जानाति । यः सर्व जानाति स एकं जानाति ॥ तुलनीय-जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहवणत्थे । णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ॥ दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दबजादीणि । ण विजाणदि जदि जुगवं किघ सो सव्वाणि जाणादि ॥ (प्रवचनसार अ. १ गा. ४८,४९) छाया-यो न विजानाति युगपदर्थान् कालिकान् त्रिभुवनस्थान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ॥ द्रव्यमनन्तपर्यायमेकमनन्तानि द्रव्यजातीनि । न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ॥
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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