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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १] स्याद्वादमञ्जरी षितरागादिदोष इति । अबाध्यसिद्धान्तता च श्रुतकेवल्या'दिष्वपि दृश्यतेऽतस्तदपोहायाप्तमुख्यमिति विशेषणम् । आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामैकान्तिक आत्यन्तिकश्च क्षयः, सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः। अभ्रादित्वाद् मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गानां प्रधानत्वेन मुख्यम् । “शाखादेर्यः" इति तुल्ये यः। अमर्त्यपूज्यता च तथाविधगुरूपदेशपरिचर्यापर्याप्तविद्याचरणसम्पन्नानां सामान्यमुनीनामपि न दुर्घटा । अतस्तन्निराकरणाय स्वयम्भवमिति विशेषणम् । स्वयम्-आत्मनैव, परोपदेशनिरपेक्षतयाऽवगततत्त्वो भवतीति स्वयम्भूः-स्वयं संबुद्धः, तम् । एवंविधं चरमजिनेन्द्र स्तोतुं-स्तुतिविषयीकर्तुम् अहं यतिष्ये-यत्नं करिष्यामि । अत्र चाचार्यो भविष्यत्कालप्रयोगेण योगिनामप्यशक्यानुष्ठानं भगवद्गुणस्तवनं मन्यमानः श्रद्धामेव स्तुतिकरणेऽसाधारणं कारणं ज्ञापयन् यत्नकरणमेव मदधीनं पुनर्यथाऽवस्थितभगवद्गुणस्तवनसिद्धिरिति सूचितवान् । अहमित च गतार्थत्वेऽपि परोपदेशान्यानुवृत्त्यादिनिरपेक्षतया निजश्रद्धयैव स्तुतिप्रारम्भ इति ज्ञापनार्थम् ।। अथवा। श्रीवर्धमानादिविशेषणचतुष्टयमनन्तविज्ञानादिपदचतुष्टयेन सह हेतुहेतुमद्भावेन व्याख्यायते । यत एव श्रीवर्धमानम् , अत एवानन्तविज्ञानम् । श्रिया-कृत्स्नकर्मदोषोंको जीतकर उन्हें जड़मूलसे नष्ट कर दिया है, उसे जिन कहते हैं। 'अबाध्यसिद्धान्त' श्रुतकेवली आदिमें भी पाया जाता है, उसका निराकरण करनेके लिए 'आप्तमुख्य विशेषण दिया गया है। जिसके राग, द्वेष और मोहका सर्वथा लय हो गया है, उसे आत कहते हैं। [यहाँ अभ्रादिगणमें मत्वर्थम 'अच्' प्रत्यय हुआ है; ( 'अभ्रादिभ्यः' हेमशब्दानुशासन ७।२।४६ )। जिस प्रकार सम्पूर्ण अंगोंमें मुख प्रधान है, इसी तरह जिनेन्द्रभगवान् आप्तोंमें प्रधान है, इसलिए उन्हें आप्तमुख्य कहा गया है। यहां 'शाखादेयंः' (हेमशब्दानुशासन ७१११४ ) सूत्रसे तुल्य अर्थमें 'य' प्रत्यय हुआ है ]। सद्गुरुओंके उपदेश और सेवासे पर्याप्त ज्ञान और चारित्रको प्राप्त करनेवाले सामान्य मुनि भी देवों द्वारा पूजे जाते हैं, इसलिए उनका निराकरण करनेके लिए 'स्वयम्भू' विशेषण दिया गया है। जिसने दूसरेके उपदेशके बिना स्वयं ही तत्त्वोंको जान लिया है, वह स्वयम्भू कहलाता है-जो स्वयं सम्बुद्ध हो । इन पूर्वोक्त विशेषणोंसे युक्त अन्तिम जिनेन्द्र ( वर्धमानस्वामी ) की स्तुति करनेका मैं (हेमचन्द्र ) प्रयत्न करूंगा । भगवान्के गुणोंका स्तवन योगियों द्वारा भो अशक्य है, और असाधारण श्रद्धाके वश ही उन गुणोंको स्तुति की जाती है, यह सूचित करनेके लिए आचार्यने 'यतिष्ये' भविष्यकालका प्रयोग किया है। अर्थात् प्रयत्न करना ही मेरे अधीन है, यथावस्थित भगवान्के गुणोंके स्तवनकी सिद्धि नहीं, यही इससे सूचित होता है । यद्यपि 'यतिष्ये' कहनेसे 'अहं' का स्वयं बोध हो जाता है, फिर भी दूसरोंके उपदेशके बिना; बिना किसीकी आज्ञाके, केवल अपनी ही भक्तिसे मैं इस स्तवनको आरम्भ करता हूँ, यह बतानेके लिए 'अहं' पद दिया गया है। ___ अथवा-(१) श्रीवर्धमान, (२) जिनं, (३) आप्तमुख्यं, (४) स्वयम्भुवं-ये चारों विशेषण क्रमशः (१) अनन्तविज्ञानं, (२) अतीतदोष, (३) अबाध्यसिद्धान्तं, (४) अमर्त्यपूज्यंके साथ कारण और कार्यरूपसे प्रतिपादित किये जा सकते हैं। भगवान् सम्पूर्ण कर्मोंके नाशसे उत्पन्न होनेवाली अनन्तचतुष्टय लक्ष्मीसे १. श्रुतेन केवलिनः श्रुतकेवलिनः, चतुर्दशपूर्वधरत्वात् । अथ प्रभवः प्रभुः । शय्यम्भवो यशोभद्रः सम्भूतविजयस्ततः ॥३३॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् ॥३४॥ इति अभिधानचिन्तामणी प्रथमकाण्डे । २. निःशेषीकृतेऽपि पुनरुद्भवमाशक्यात्यन्तिकः, अभूयःसम्भवदोषविनाशः । ३. 'अभ्रादिभ्यः' हैमसूत्रम् ७।२।४६ । ४. हैमसूत्रम् ७१।११४ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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