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[ ८ ] तक कि ज्ञानीके सिर पर लाठियोंकी मार पड़े वह भी कम; और ज्ञानीके मरनेके बाद उसके नामके पत्थरको भी पूजे!' एकान्तचर्या
मोहमयी (बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे। यह उनका प्रमुख और अनिवार्य कार्य था । उद्योग-रत जीवनमें शांत और स्वस्थ चित्तसे चुपचाप आत्मसाधना करना उनके लिये सहज हो चला था; फिर भी बीच-बीचमें विशेप अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुँच जाते थे। वे किसी भी स्थानपर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे। वे नहीं चाहते थे कि किसीके परिचयमें आया जाय, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी। अनेक जिज्ञासु-भ्रमर उनका उपदेश, धर्मवचन सुननेकी इच्छासे पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे और सत्समागमका लाभ प्राप्त कर लेते थे। गुजरातके चरोतर, ईडर आदि प्रदेशमें तथा सौराष्ट्र क्षेत्रके अनेक शान्तस्थानोंमें उनका गमन हुआ। आपके समागमका विशेष लाभ जिन्हें मिला उनमें मुनिश्री लल्लुजी ( श्रीमद्लघुराजस्वामी ), मुनिश्री देव. करणजी तथा सायलाके श्री सौभागभाई, अम्बालालभाई (खंभात), जूठाभाई ( अमदाबाद) एवं डूंगरभाई मुख्य थे।
एक बार श्रीमद्जी सं० १९५५ में जब कुछ दिन ईडरमें रहे तब उन्होंने डॉ० प्राणजीवनदास महेता (जो उस समय ईडर स्टेटके चीफ मेडिकल ऑफीसर थे और सम्बन्धकी दृष्टिसे उनके श्वसुरके भाई होते थे) से कह दिया था कि उनके आनेकी किसीको खवर न हो। उस समय वे नगरमें केवल भोजन लेने जितने समयके लिए ही रुकते, शेष समय ईडरके पहाड़ और जंगलोंमें बिताते ।
__ मुनिश्री लल्लुजी, श्रीमोहनलालजी तथा श्री नरसीरखको उनके वहाँ पहुँचनेके समाचार मिल गये । वे शीघ्रतासे ईडर पहुँचे । श्रीमद्जीको उनके आगमनका समाचार मिला । उन्होंने कहलवा दिया कि मुनिश्री बाहरसे बाहर जंगलमें पहुँचें-यहाँ न आवे । साधुगण जंगलमें चले गये । बादमें श्रीमद्जी भी वहां पहुंचे । उन्होंने मुनिश्री लल्लुजीसे एकांतमें अचानक ईडर आनेका कारण पूछा। मुनिश्रीने उत्तर में कहा कि 'हम लोग अमदाबाद या खंभात जानेवाले थे, यहाँ निवृत्ति क्षेत्रमें आपके समागममें विशेष लाभकी इच्छासे इस ओर चले आये । मुनि देवकरणजी भी पीछे आते हैं।' इस पर श्रीमद्जीने कहा-'आप लोग कल यहाँसे विहार कर जावें, देवकरणजीको भी हम समाचार भिजवा देते हैं वे भी अन्यत्र विहार कर जावेंगे। हम यहाँ गुप्तरूपसे रहते हैं किसीके परिचयमें आनेकी इच्छा नहीं है।'
श्री लल्लुजी मुनिने नम्र-निवेदन किया-'आपकी आज्ञानुसार हम चले जावेंगे परन्तु मोहनलालजी और नरसीरख मुनियोंको आपके दर्शन नहीं हुये हैं, आप आज्ञा करें तो एक दिन रुककर चले जावें।' श्रीमद्जीने इसकी स्वीकृति दी। दूसरे दिन मुनियोंने देखा कि जंगलमें आम्रवृक्षके नीचे श्रीमद्जी प्राकृतभाषाकी *गाथाओंका तन्मय होकर उच्चारण कर रहे हैं। उनके पहुंचनेपर भी आधा घण्टे तक वे गाथायें बोलते ही रहे और ध्यानस्थ हो गए। यह वातावरण देखकर मुनिगण आत्मविभोर हो उठे। थोड़ी देर बाद श्रीमद्जी
* १. मा मुज्झह मा रज्जह मा दुस्सह इणि?अत्थेसु ।
थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥४८॥ २. जं किंचि वि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू ।
लद्भणय एयत्तं तदाहु तं णिच्चयं ज्झाणं ॥ ५५ ॥ ३. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥ ५६ ॥
(द्रव्यसंग्रह) -श्रीमद्जीने यह 'बृहद्रव्यसंग्रह'-ग्रन्थ ईडरके दि० जैन शास्त्र भण्डारमेंसे स्वयं निकलवाया था।