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________________ [ ९ ] ध्यानसे उठे और "विचारना' इतना कहकर चलते बने। मुनियोंने विचारा कि लघुशंकादि-निवृत्तिके लिए जाते होंगे परन्तु वे तो निस्पृहरूपसे चले ही गये । थोड़ी देर इधर-उधर ढूँढ़कर मुनिगण उपाश्रयमें आ गये । उसी दिन शामको मुनि देवकरणजी भी वहाँ पहुँच गये। सभीको श्रीमदजीने पहाड़के ऊपर स्थित दिगम्बर, श्वेताम्बर मन्दिरोंके दर्शन करनेकी आज्ञा दी। वीतराग-जिनप्रतिमाके दर्शनोंसे मुनियोंको परम उल्लास जाग्रत हुआ। इसके पश्चात् तीन दिन और भी श्रीमदजीके सत्समागमका लाभ उन्होंने उठाया। जिसमें श्रीमद्जीने उन्हें 'द्रव्यसंग्रह' और 'आत्मानुशासन'-ग्रन्थ पूरे पढ़कर स्वाध्यायके रूपमें सुनाये एवं अन्य भी कल्याणकारी वोध दिया। अत्यन्त जाग्रत आत्मा ही परमात्मा बनता है, परम वीतराग-दशाको प्राप्त होता है। इन्हीं अन्तरभावोंके साथ आत्मस्वरूपको ओर लक्ष कराते हुए एक वार श्रीमद्जीने अहमदाबादमें मुनिश्री लल्लुजी (पू० लघुराजस्वामी ) तथा श्रीदेवकरणजीको कहा था कि 'हममें और वीतरागमें भेद गिनना नहीं' 'हममें और श्री महावीर भगवानमें कुछ भी अन्तर नहीं, केवल इस कुर्तेका फेर है ।' मत-मतान्तरके आग्रहसे दूर उनका कहना था कि मत-मतान्तरके आग्रहसे दूर रहने पर ही जीवनमें रागद्वेषसे रहित हुआ जा सकता है। मतोंके आग्रहसे निजस्वभावरूप आत्मधर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती। किसी भी जाति या वेषके साथ भी धर्मका सम्बन्ध नहीं: "जाति वेपनो भेद नहि, कह्यो मार्ग जो होय । साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय ॥" (आत्मसिद्धि १०७) -जो मोक्षका मार्ग कहा गया है वह हो तो किसी भी जाति या वेषसे मोक्ष होवे, इसमें कुछ भेद नही है । जो साधना करे वह मुक्तिपद पावे । आपने लिखा है-"मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है। मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना।" (पुष्पमाला १४ पृ०४) "तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहनेका तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर'।"(पु०मा० १५ पृ०४) "दुनिया मतभेदके बंधनसे तत्त्व नहीं पा सकी !" (पत्र क्र. २७) उन्होंने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह महेता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँ-तहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव (तत्त्वप्राप्तिके योग्य आत्मा) कहा है। इसलिए एक जगह उन्होंने अत्यन्त मध्यस्थतापूर्वक आध्यात्मिक-दृष्टि प्रगट की है कि 'मैं किसी गच्छमें नहीं, परन्तु आत्मामें हूँ।' एक पत्रमें आपने दर्शाया है-"जब हम जैनशास्त्रोंको पढ़नेके लिए कहें तब जैनी होनेके लिए नहीं कहते; जब वेदान्तशास्त्र पढ़नेके लिए कहें तो वेदान्ती होनेके लिए नहीं कहते। इसीप्रकार अन्य शास्त्रोंको बांचनेके लिए कहें तब अन्य होनेके लिए नहीं कहते । जो कहते हैं वह केवल तुम सब लोगोंको उपदेश-ग्रहणके लिए ही कहते हैं। जैन और वेदान्ती आदिके भेदका त्याग करो। आत्मा वैसा नहीं है।" १. देखिए इसीप्रकारके विचार पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ (हरिभद्रसूरि) २. श्रीमद्राजचन्द्र' (गुज०) पत्र क्र० ३५८ --
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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