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रुपये लेना निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ। इतने अधिक रुपये मैं तुमसे लें तो तुम्हारी क्या दशा हो ? परन्तु राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं !"
वह व्यापारी कृतज्ञ-भावसे श्रीमद्की ओर स्तब्ध होकर देखता ही रहा । भविष्यवक्ता, निमित्तज्ञानी
श्रीमद्जीका ज्योतिप-सम्बन्धी ज्ञान भी प्रखर था। वे जन्मकुंडली, वर्पफल एवं अन्य चिह्न देखकर भविष्यकी सूचना कर देते थे। श्रीजूठाभाई ( एक मुमुक्षु ) के मरणके वारेमें उन्होंने २। मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था। एक बार सं० १९५५ की चैत्र वदी ८ को मोरवीमें दोपहरके ४ बजे पूर्वदिशाके आकाशमें काले बादल देखे और उन्हें दुष्काल पड़नेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा कि 'ऋतुको सन्निपात हुआ है ।' इस वर्ष १९५५ का चौमासा कोरा रहा-वर्षा नहीं हुई और १९५६ में भयंकर दुष्काल पड़ा। वे दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे। यह सब उनकी निर्मल आत्मशक्तिका प्रभाव था। कवि-लेखक
श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेकी सहज क्षमता थी। उन्होंने सामाजिक रचनाओंमें-'स्त्रीनीतिबोधक', 'सद्बोधशतक' 'आर्य प्रजानी पडती' 'हुन्नरकला वधारवा विर्षे' 'सद्गुण, सूनीति. सत्य वि' आदि अनेक रचनाएं केवल ८ वर्षकी वयमें लिखी थीं, जिनका एक संग्रह प्रकाशित हआ है। ९ वर्पकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्य-रचना की थी जो प्राप्त नहीं हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विपय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएं हैं। प्रमुखरूपसे 'आत्मसिद्धि' (१४२ दोहे ) 'अमूल्य तत्त्वविचार' 'भक्तिना वीस दोहरा' 'ज्ञानमीमांसा' 'परमपदप्राप्तिनी भावना' (अपूर्व अवसर) 'मूळमार्ग रहस्य' 'जिनवाणीनी स्तुति' 'वारह भावना' और 'तृष्णानी विचित्रता' हैं । अन्य भी बहुत सी रचनाएं हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्षों में लिखी हैं।
'आत्मसिद्धि'-शास्त्रकी रचना तो आपने मात्र डेढ़ घंटेमें, श्री सौभागभाई, डूंगरभाई आदि मुमक्षुओंके हितार्थ नडियादमें आश्विन वदी १ (गुजराती) गुस्वार सं० १९५२ को २९वें वर्पमें लिखी थी। यह एक, निस्संदेह धर्ममार्गकी प्राप्तिमें प्रकाशरूप अद्भत रचना है । अंग्रेजीमें भी इसके गद्य-पद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं।
गद्य-लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला' 'भावनाबोध' और 'मोक्षमाला' की रचना की । यह सभी सामग्री पठनीय-विचारणीय है। 'मोक्षमाला' उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है, जिसे उन्होंने केवल १६ वर्ष ५ मासकी आयुमें मात्र ३ दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ पाठ है। कथनका प्रकार विशाल और तत्त्वपूर्ण है।
उनकी अर्थ करनेकी शक्ति भी बड़ी गहन थी। भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय'-ग्रन्थको मूल गाथाओंका उन्होंने अविकल गुजराती अनुवाद किया है । सहिष्णुता
विरोधमें भी सहनशील होना महापुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। यह बात यहाँ घटित होती है । जैन समाजके कुछ लोगोंने उनका प्रबल विरोध किया, निन्दा की, फिर भी वे अटल शांत और मौन रहे। उन्होंने एक बार कहा था : 'दुनिया तो सदा ऐसी ही है । ज्ञानियोंको, जीवित हों तब कोई पहचानता नहीं, वह यहाँ १. देखिये-दैनिक नोंधसे लिया गया कथन, पत्र क्र. ११६, ११७ ('श्रीमदराजचन्द्र' गुजराती) २. 'आत्मसिद्धि' के अंग्रेजी अनुवादमें Atmasiddhi, Self Realization, और Self Fulfilment
प्रगट हुए हैं। संस्कृत-छाया भी छपी है। ३. देखिये-'श्रीमद्राजचन्द्र' गुज० पत्रांक ७६६ । उनकी सभी प्रमुख-सामग्रीका संकलन 'श्रीमद्राजचन्द्र'
ग्रन्थमें किया गया है।