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श्रीमद्जीकी स्पर्शनशक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी । उपरोक्त सभामें ही उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके बारह ग्रन्थ दिये गये और उनके नाम भी उन्हें पढ़कर सुना दिये गये। बादमें उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर जो-जो ग्रन्थ उनके हाथ पर रखे गये उन सब ग्रन्थोंके नाम हाथोंसे टटोलकर उन्होंने बता दिये ।
श्रीमदजीकी इस अद्भुतशक्तिसे प्रभावित होकर उस समयके बम्बई हाइकोर्टके मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजंटने उन्हें विलायत चलकर अवधान-प्रयोग दिखानेकी इच्छा प्रगट की थी, परन्तु श्रीमद्जीने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्हें कीर्तिकी इच्छा नहीं थी बल्कि ऐसी प्रवृत्तियोंको आत्मकल्याणके मार्ग में बाधक जानकर फिर उन्होंने अवधान प्रयोग नहीं किये ।
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महात्मा गांधी ने कहा था
महात्मा गांधीने उनकी स्मरणशक्ति और आत्मज्ञानसे जो अपूर्व प्रेरणा प्राप्त की यह संक्षेपमें उन्होंके शब्दोंमें—
"रायचन्द्रभाईके साथ मेरी भेंट जुलाई सन् १८९१ में उस दिन हुई जब में विलायतसे बम्बई वापिस लोटा इन दिनों समुद्र में तूफान आया करता है इस कारण जहाज रातको देरीसे पहुँचा। मैं डाक्टर बैरिस्टर और अब रंगूनके प्रख्यात जोहरी प्राणजीवनदास महेताके घर उतरा था। रामचन्द्रभाई उनके बड़े भाईके जमाई होते थे । डॉक्टर सा० ( प्राणजीवनदास ) ने ही परिचय कराया। उनके दूसरे बड़े भाई झवेरी रेवाशंकर जगजीवनदासकी पहचान भी उसी दिन हुई । डाक्टर सा० ने रायचन्दभाईका 'कवि' कहकर परिचय कराया और कहा, 'कवि' होते हुए भी आप हमारे साथ व्यापारमें हैं, आप ज्ञानी और शतावधानी हैं । किसीने सूचना की कि मैं उन्हें कुछ शब्द सुनाऊँ, और वे शब्द चाहे किसी भी भाषाके हों, जिस क्रमसे मैं बोलूँगा उसी क्रमसे वे दुहरा जायेंगे, मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ। मैं तो उस समय जवान और विलायतसे लौटा था; मुझे भाषाज्ञानका भी अभिमान था। मुझे विलायतकी हवा भी कम नहीं लगी थी । उन दिनों विलायतसे आया मानों आकाशसे उतरा था ! मैंने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया और अलगअलग भाषाओंके शब्द पहले तो मैंने लिख लिये, क्योंकि मुझे वह क्रम कहाँ याद रहने वाला था ? और बादमें उन शब्दोंको में बच गया। उसी क्रमसे रायचंदभाईने धीरेसे एकके बाद एक सव शब्द कह सुनाये। मैं राजी हुआ, चकित हुआ और कविकी स्मरणशक्तिके विषयमें मेरा उच्च विचार हुआ। विलायतकी हवाका असर कम पड़नेके लिए यह सुन्दर अनुभव हुआ कहा जा सकता है । कविके साथ यह परिचय बहुत मागे बढ़ा......कवि संस्कारी ज्ञानी थे।
मुझपर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव डाला है - टाल्सटॉय, रस्किन और रायचंदभाई ! टाल्सटॉयने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्डु दिस लास्ट' सेजिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है, और रायचन्दभाईने अपने गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दूधर्म में शंका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचन्दभाई थे । सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रीका में कुछ क्रिश्चियन सज्जनोंके विशेष सम्पर्क में आया। उनका जीवन स्वच्छ था। वे मुस्त धर्मात्मा थे । अन्य-धर्मियोंको क्रिश्चियन होनेके लिए समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका सम्बन्ध व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था, तो भी उन्होंने मेरे आत्माके कल्याणके लिये चिन्ता करना शुरू कर दिया । उस समय मैं अपना एक ही कर्तव्य समझ सका कि जब तक मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको पूरी तोरसे न जान लू और उससे मेरे आत्माको असंतोष न हो जाय, तबतक मुझे अपना कुलधर्म कभी नहीं छोड़ना चाहिये। इसलिये मैंने हिन्दूधर्म और अन्य धर्मोकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दीं। क्रिश्चियन और इस्लामधर्मकी पुस्तकें पड़ीं। विलायतसे अंग्रेज मित्रोंके साथ पत्रव्यवहार किया। उनके समक्ष अपनी शंकायें रक्सी तथा हिन्दुस्तान में जिनके ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी उनसे पत्रव्यवहार किया। उनमें रायचन्दभाई मुख्य ये उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था, उनके प्रति मान भी था, इसलिए उनसे जो भी