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स्मगान भूमिमें जला देवेंगे।' इतना सुनकर राजचन्द्रजी थोड़ी देर तो घरमें इधर-उधर घूमते रहे, बादमें चुपचाप तालावके पास गये और वहां बवूलके एक वृक्षपर चढ़कर देखा तो सचमुच कुटुम्नके लोग उसके शरीरको जला रहे है। इस प्रकार एक परिचित और सज्जन व्यक्तिको जलाता देखकर उन्हें वड़ा आश्चर्य हुआ और वे विचारने लगे कि यह सब क्या है ! उनके अन्तरमें विचारोंकी तीव्र खलवली-सी मच गई और वे गहन विचारमे दुद गये । इसी समय अचानक चित्तपरसे भारी आवरण हट गया और उन्हें पर्व भवोंकी स्मृति हो आई । वाद में एक बार वे जूनागढ़का किला देखने गये तव पूर्व स्मृतिज्ञानकी विशेप वृद्धि हुई। इस पूर्वस्मृतिरूप-जानने उनके जीवनमें प्रेरणाका अपूर्व नवीन-अध्याय जोड़ा। श्रीमद्जीकी पढ़ाई विशेष नहीं हो पाई थी फिर भी, वे संस्कृत, प्राकृत आदि भापाओंके ज्ञाता थे एवं जैन आगमोंके असाधारण वेत्ता और मर्मज्ञ थे। उनको क्षयोपशम-शक्ति इतनी विशाल थी कि जिस काव्य या सत्रका मर्म वडे-बडे विद्वान लोग नहीं बता सकते थे उसका यथार्थ विश्लेपण उन्होंने सहजरूपमें किया है। किसी भी विपयका सांगोपांग विवेचन करना उनके अधिकारको वात थी। उन्हें अल्प-वयमें ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो गई थी, जैसा कि उन्होंने स्वयं एक काव्यमें लिखा है
लघुवयथी अद्भुत थयो, तत्त्वज्ञाननो बोध । एज सूचवे एम के, गति आगति कां शोध ? जे संस्कार थवा घटे, अति अभ्यासे काय,
विना परिश्रम ते थयो, भवशंका शी त्यांय ? -अर्थात् छोटी अवस्थामें मुझे अद्भुत तत्त्वज्ञानका बोध हुआ है, यही सूचित करता है कि अब पुनर्जन्मके शोधकी क्या आवश्यकता है ? और जो संस्कार अत्यन्त अभ्यासके द्वारा उत्पन्न होते हैं वे मुझे बिना किसी परिश्रमके ही प्राप्त हो गये हैं, फिर वहाँ भव-शंकाका क्या काम ? (पूर्वभवके ज्ञानसे आत्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई है।) अवधान-प्रयोग, स्पर्शनशक्ति
श्रीमद्जीकी स्मरणशक्ति अत्यन्त तीन थी। वे जो कुछ भी एक वार पढ़ लेते, उन्हें ज्यों का त्यों याद रह जाता था । इस स्मरणशक्तिके कारण वे छोटी अवस्थामें ही अवधान-प्रयोग करने लगे थे। धीरे-धीरे वे सौ अवधान तक पहुंच गये थे। वि० सं० १९४३ में १९ वर्षकी अवस्थामें उन्होंने बम्बईकी एक सार्वजनिक सभामें डॉ० पिटर्सनके सभापतित्वमें सौ अवधानोंका प्रयोग वताकर बड़े-बड़े लोगोंको आश्चर्य में डाल दिया था। उस समय उपस्थित जनताने उन्हें 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया, साथही 'साक्षात् सरस्वती' के पदसे भी विभूषित किया था। ई० सन् १८८६-८७ में 'मुंबई समाचार' 'जामे जमशेद' 'गुजराती' 'पायोनियर' 'इण्डियन स्पॅक्टेटर' 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' आदि गुजराती एवं अंग्रेजी पत्रोंमें श्रीमद्जीकी अद्भुत शक्तियोंके वारेमें भारी प्रशंसात्मक लेख छपे थे। शतावधानमें शतरंज खेलते जाना, मालाके दाने गिनते जाना, जोड़ बाकी गुणा करते जाना, आठ भिन्न-भिन्न समस्याओंकी पूर्ति करते जाना, सोलह भापाओंके भिन्न-भिन्न क्रमसे उलटे-सीधे नम्बरोंके साथ शब्दोंको याद रखकर वाक्य बनाते जाना, दो कोठोंमें लिखे हुए उल्टे-सीधे अक्षरोंसे कविता करते जाना, कितने ही अलंकारोंका विचार करते जाना, इत्यादि सौ कामोंको एक ही साथ कर सकते थे।
१. इस प्रसंगकी चर्चा कच्छके एक वणिक बंधु पदमशीभाई ठाकरशीके पूछनेपर बम्बईमें भूलेश्वरके दि.
जैन मन्दिरमें सं० १९४२ में श्रीमद्जीने की। २. देखिए पं० बनारसीदासजीके 'समता रमता उरधता०' पद्यका विवेचन 'श्रीमद्राजचन्द्र' (गुजराती)
पत्रांक ४३८ । ३. आनंदघन चौवीसीके कुछ पद्योंका विवेचन उपरोक्त ग्रन्थ में पत्रांक ७५३ ।