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________________ अलौकिक अध्यात्मज्ञानी परमतत्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र 'खद्योतवत्सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित्क्वचित्' हा! सम्यक्तत्त्वोपदेष्टा जुगनूंकी भाँति कहीं-कहीं चमकते हैं, दृष्टिगोचर होते हैं। -आशाधर । महान् तत्त्वज्ञानियोंको परम्परारूप इस भारतभूमिके गुजरात प्रदेशान्तर्गत ववाणिया ग्राम (सौराष्ट्र) में श्रीमद्राजचन्द्रका जन्म विक्रम सं० १९२४ ( सन् १८६७ ) की कार्तिकी पूर्णिमाके शुभदिन रविवारको रात्रिके २ बजे हुआ था। यह ववाणिया ग्राम सौराष्ट्र में मोरबीके निकट है। इनके पिताका नाम श्रीरवजीभाई पंचाणभाई महेता और माताका नाम श्री देवबाई था। आप लोग बहत भक्तिशील और सेवा-भावी थे। साधु-सन्तोंके प्रति अनुराग; गरीवोंको अनाज कपड़ा देना; वृद्ध और रोगियोंकी सेवा करना इनका सहज-स्वभाव था। श्रीमद्जीका प्रेम-नाम 'लक्ष्मीनंदन' था। बादमें यह नाम बदलकर 'रायचन्द' रखा गया और भविष्यमें आप 'श्रीमद्राजचन्द्र' के नामसे प्रसिद्ध हुए।। श्रीमद्राजचन्द्रका उज्ज्वल जीवन सचमुच किसी भी समझदार व्यक्तिके लिए यथार्थ मुक्तिमार्गकी दिशामें प्रवल प्रेरणाका स्रोत हो सकता है । वे तीव्र क्षयोपशमवान और आत्मज्ञानी सन्तपुरुष थे, ऐसा निस्संदेहरूपसे मानना ही पड़ता है। उनकी अत्यन्त उदासीन सहज वैराग्यमय परिणति तीव्र एवं निर्मल आत्मज्ञान-दशाकी सूचक है। ___ श्रीमद्जीके पितामह श्रीकृष्णके भक्त थे, जव कि उनकी माताके जैन-संस्कार थे । श्रीमद्जीको जैन लोगोंके 'प्रतिक्रमणसूत्र' आदि पुस्तकें पढ़नेको मिलीं । इन धर्म-पुस्तकोंमें अत्यन्त विनयपूर्वक जगतके सर्व जीवोंसे मित्रताकी भावना व्यक्त की गई है । इस परसे श्रीमद्जीकी प्रीति जैनधर्मके प्रति बढ़ने लगी। यह वृत्तान्त उनकी तेरह वर्षकी वयका है। तत्पश्चात् वे अपने पिताको दुकानपर बैठने लगे। अपने अक्षरोंकी छटाके कारण जब-जब उन्हें कच्छ दरबारके महलमें लिखनेके लिए बुलाया जाता था तब-तव वे वहाँ जाते थे। दुकान पर रहते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें पढ़ीं, राम आदिके चरित्रोंपर कविताएँ रची, सांसारिक तृष्णा की, फिर भी उन्होंने किसीको कम-अधिक भाव नहीं कहा अथका किसीको कम-ज्यादा तौलकर नहीं दिया। जातिस्मरण और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति श्रीमद्जी जिस समय सात वर्षके थे उस समय एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवनमें बना । उन दिनों ववाणियामें अमीचन्द नामके एक गृहस्थ रहते थे जिनका श्रीमद्जीके प्रति बहुत ही प्रेम था । एक दिन अमीचन्दको साँपने काट लिया और तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। उनके मरण-समाचार सुनते हो राजचन्द्रजी अपने घर दादाजीके पास दौड़े आये और उनसे पूछा : 'दादाजी, क्या अमीचन्द मर गये ?' बालक राजचन्द्रका ऐसा सीधा प्रश्न सुनकर दादाजीने विचार किया कि इस बातका बालकको पता चलेगा तो डर जायगा अतः उनका ध्यान दूसरी ओर आकर्षित करनेके लिए दादाजीने उन्हें भोजन कर लेनेको कहा और इधर-उधरकी दूसरी बातें करने लगे। परन्तु, बालक राजचन्द्रने मर जानेके बारेमें प्रथमबार ही सुना था इसलिए विशेष जिज्ञासापूर्वक वे पूछ बैठे : 'मर जानेका क्या अर्थ है ?' दादाजीने कहा-उसमेंसे जीव निकल गया है । अब वह चलना-फिरना, खाना-पीना कुछ नहीं कर सकता, इसलिए उसे तालाबके पास
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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