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________________ [ ४ ] मिल सके उने लेनेका मैंने विचार किया। उसका फल यह हुआ कि मुझे शान्ति मिली । हिन्दूधर्ममें मुझे जो चाहिये वह मिल सकता है, ऐसा मनको विश्वास हुआ। मेरी इस स्थितिके जिम्मेदार रायचन्दभाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिये इसका पाठक लोग अनुमान कर सकते हैं।" ___ इस प्रकार उसके प्रवल आत्मज्ञानके प्रभावके कारण ही महात्मा गांधीको सन्तोप हुआ और उन्होंने धर्मपरिवर्तन नहीं किया । और भी वर्णन करते हुये गाँधीजीने उनके बारेमें लिखा है : "श्रीमद्राजचन्द्र असाधारण व्यक्ति थे । उनके लेख उनके अनुभवके विन्दु समान हैं। उन्हें पढ़नेवाले, विचारनेवाले और उसके अनुसार आचरण करनेवालेको मोक्ष सुलभ होवे । उसको कषायें मन्द पड़ें, उसे संसारमें उदासीनता आवे, वह देहका मोह छोड़कर आत्मार्थी बने । इस परसे वांचक देखेंगे कि श्रीमद्के लेख अधिकारीके लिए उपयोगी है। सभी वांचक उसमें रस नहीं ले सकते । टीकाकारको उसकी टीकाका कारण मिलेगा परन्तु श्रद्धावान तो उसमें से रस ही लूटेगा। उनके लेखोंमें सत् निथर रहा है, ऐसा मुझे हमेशा भास हुआ है। उन्होंने अपना ज्ञान दिखानेके लिये एक भी अक्षर नहीं लिखा। लिखनेका अभिप्राय वाचकको अपने आत्मानन्दमें भागीदार बनानेका था। जिसे आत्मक्लेश टालना है, जो अपना कर्तव्य जाननेको उत्सुक है उसे श्रीमद्के लेखोंमेंसे वहुत मिल जायगा ऐसा मुझे विश्वास है, फिर भले वह हिन्दू हो या अन्य धर्मी। "जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?) इस काव्यकी कड़ियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्पके गाढ़ परिचयमें प्रतिक्षण उनमें देखा था। उनके लेखोंकी एक असाधारणता यह है कि स्वयं जो अनुभव किया वही लिखा है। उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है। दूसरे पर प्रभाव डालनेके लिये एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा। खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही। किसी समय इस जगतके किसी भी वैभवमें उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा। उनकी चाल धीमी थी और देखनेवाला भी समझ सकता कि चलते हुये भी ये अपने विचारमें ग्रस्त हैं। आँखोंमें चमत्कार था अत्यन्त तेजस्वी, विह्वलता जरा भी नहीं थी। दृष्टिमें एकाग्रता थी। चेहरा गोलाकार, होंठ पतले, नाक नोंकदार भी नहीं चपटी भी नहीं, शरीर इकहरा, कद मध्यम, वर्ण श्याम, देखाव शांत मूर्तिका-सा था। उनके कण्ठमें इतना अधिक माधुर्य था कि उन्हें सुनते हुए मनुष्य थके नहीं। चेहरा हँसमुख और प्रफुल्लित था, जिस पर अन्तरानन्दकी छाया थी। भापा इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हें अपने विचार प्रगट करनेके लिये कभी शब्द ढूढ़ना पड़ा है, ऐसा मुझे याद नहीं। पत्र लिखने बैठे उस समय कदाचित ही मैंने उन्हें शब्द बदलते देखा होगा, फिर भी पढ़ने वालेको ऐसा नहीं लगेगा कि कहीं भी विचार अपूर्ण है या वाक्य-रचना खंडित है, अथवा शब्दोंके चुनावमें कमी है। यह वर्णन संयमीमें संभवित है । वाह्याडम्वरसे मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता । वीतरागता आत्माकी प्रसादी है। अनेक जन्मके प्रयत्नसे वह प्राप्त होती है और प्रत्येक मनुष्य उसका अनुभव कर सकता है। रागभावको दूर करनेका पुरुपार्थ करनेवाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है। यह रागरहित दशा कवि (श्रीमद् ) को स्वाभाविक थी, ऐसी मेरे ऊपर छाप पड़ी थी। मोक्षकी प्रथम पैड़ी वीतरागता है । जवतक मन जगत्की किसी भी वस्तुमें फंसा हुआ है तवतक उसे मोक्षकी बात कैसे रुचे ? और यदि रुचे तो वह केवल कानको ही-अर्थात् जैसे हम लोगोंको अर्थ जाने या १. श्रीमद्जी द्वारा म. गाँधीको उनके प्रश्नोंके उत्तरमें लिखे गये कुछ पत्र, क्र० ५३०, ५७०, ७१७ 'श्रीमद् राजचन्द्र'-ग्रंथ (गुजराती)
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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