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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३१७ प्रकार नदीमें प्रत्येक क्षण नये नये जलके आते रहनेपर भी नदीके जल-प्रवाहका अविकल रूपसे ज्ञान होता है, उसी तरह बाल, युवा और वृद्ध अवस्थामें विज्ञानमे प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी समान परिवर्तन होनेके कारण विज्ञान (आत्मा) का एक रूप ज्ञान होता है। वौद्धोका कहना है कि इस विज्ञानप्रवाह (चित्तसंतति ) के माननेसे काम चल जाता है, अतएव आत्माको जलग स्वतंत्र पदार्थ माननेको आवश्यकता नहीं। भवसन्तति बौद्ध आत्माको न मानकर भी भवको परम्परा किस प्रकार स्वीकार करते हैं, यह मिलिन्दपण्हके निम्न संवादसे भली भांति स्पष्ट होता है मिलिन्द-भन्ते नागसेन ! दूसरे भवमें क्या उत्पन्न होता है ? नागसेन-महाराज! दूसरे भवमें नाम और रूप उत्पन्न होता है। मिलिन्द-क्या दूसरे भवमें यही नाम और रूप उत्पन्न होता है ? नागसेन-दूसरे भवमें यही नाम और रूप उत्पन्न नहीं होता। परन्तु लोग इस नाम और रूपसे अच्छे, बुरे कर्म करते हैं, और इरा कर्मसे दूसरे भवमें दूसरा नाम और रूप उत्पन्न होता है। मिलिन्द-यदि यही नाम-रूप दूसरे भवमे उलान्न नहीं होता, तो हमें अपने बुरे कर्मोका फल नहीं भोगना चाहिये ? नागसेन-यदि हमें दूसरे भवमें उत्पन्न न होना हो, तो हमें अपने बुरे कर्मोका फल न भोगना पड़े, परन्तु हमें दूसरे भवमें उत्पन्न होना है, अतएव हम बुरे कर्मों से निवृत्त नहीं हो सकते । मिलिन्द-कोई दृष्टांत देकर समझाइये । नागसेन-कल्पना करो कि कोई आदमी किसीके आम चुरा लेता है। आमों का मालिक चोरको पकड़कर राजाके पास लाता है और राजासे उस चोरको दण्ड देने की प्रार्थना करता है। अब, यदि चोर कहने लगे कि मैंने इस आदमीके आम नहीं चुराये, क्योंकि जो आम इन आमोंके मालिकने बागमें लगाये थे, वे आम दूसरे थे, और जो आम मैंने चुराये हैं, वे दूसरे हैं, इसलिये मैं दण्डका पात्र नहीं हूं, तो क्या वह चोर दण्डका भागी नहीं होगा ? मिलिन्द अवश्य ही आमों का चोर दंडका पात्र है। नागसेन-किस कारणसे ? मिलिन्द क्योंकि पिछले आम पूर्वके आमोंसे ही प्राप्त हुए हैं। नागसेन-ठीक इसी प्रकार इस नाम-रूपसे हम अच्छे, बुरे कर्मोको करते हैं और इस कर्मसे दूसरे भवमें दूसरा नाम और रूप उत्पन्न होता है। अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि 'यदि यही नाम दूसरे भवमें उत्पन्न नहीं होता तो हमें अपने बुरे कर्मोंका फल नहीं भोगना चाहिए।' 'section' of the stream........But the Thought is a perishing and not an immortal or incorruptible thing. Its successors may continuously succeed to it, resemble it, and appropriate it, but they are not it, whereas the soul substance is supposed to be a fixed unchanging thing. The Principles of Psychology, अध्याय. १०, पृ. ३४४, ३४५ । १. मिलिन्दपण्ह, अध्याय २, पृ. ४६ ।।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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