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________________ ३१६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां तब फिर वह वही आत्मा नहीं हो सकता, जो ठप्पा लगनेसे पहले था। अतएव वह एक-रस भी नहीं हो सकता। फिर आत्मा नित्य कैसे हो सकता है ? यदि थोड़ी देरके लिये मान भी लें कि आत्मा में ठप्पा लगता है तो वह अभौतिक संस्कार भी नित्य आत्मामें लगकर अविचल हो जायगा। तब फिर शुद्धि या मुक्तिकी आशा कैसे की जा सकती है ?......"जो लोग पुनर्जन्म भी मानते हैं और साथ-साथ आत्माको नित्य भी. उनकी ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। जब वह नित्य है तो कूटस्थ भी है, अर्थात् सदा एक-रस रहेगा, फिर ऐसी एक-रस वस्तुको यदि परिशुद्ध मानते हैं तो वह जन्म-मरणके फेरमें कैसे पड़ सकता है ? यदि अशुद्ध है तो स्वभावतः अशुद्ध होनेसे उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? नित्य कूटस्थ होनेपर संस्कारकी छाप उसपर नहीं पड़ सकती, यह हम पहले कह चुके हैं। यदि छापके लिए मनको मानते हैं, तो आत्मा माननेकी जरूरत ही क्या रह जाती है ?"१ नित्य आत्माको मानने में यह दर्शनशास्त्र सम्बन्धी कठिनाई है। आत्माके मानने में दूसरी कठिनाई यह आती है कि प्रिय वस्तुको लेकर ही सम्पूर्ण दुख उत्पन्न होते हैं, इसलिये जिस समय मनुष्यको अपनी आत्मा सर्वप्रिय हो जाती है, उस समय मनुष्य अपनी आत्माकी सुखसाधन सामग्रियां जुटानेके लिये अहंकारका अधिकाधिक पोषण करने लगता है, फलतः मनुष्यके दुखकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। अतएव बौद्धोंने आत्माको कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानकर रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पांन स्कन्धोंके समूहसे उत्पन्न होनेवाली शक्तिको आत्मा अथवा विज्ञान नामसे कहा है। यह विज्ञान प्रतिक्षण नदीके प्रवाहकी तरह ( नदीसोतोविय ) बदलता रहता है। जिस प्रकार दीपककी ज्योति क्षण-क्षणमें बदलते रहने पर भी सदृश परिवर्तनके कारण एक अखण्ड रूपसे मालूम होती है, अथवा जिस १. राहुल सांकृत्यायन-मज्झिमनिकाय भूमिका पृ. त । २. दुःखेहतुरहंकार आत्ममोहात्तु वर्धते । ततोऽपि न निवर्त्यश्चेत् वरं नैरात्म्यभावना ॥ बोधिचर्यावतार ६-७८ । साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबंधो। नाहंकारश्चलति हृदयादात्मदृष्टौ च सत्याम् । अन्यः शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरात्म्यवादी । नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्तिमार्गः ॥ तत्त्वसंग्रहपंजिका, पृ. ९०५ । तुलनीय-जन्मयोनिर्यतस्तृष्णा ध्रुवा सा चात्मदर्शने । तदभावे च नेयं स्याद्बीजाभावे इवांकूरः । न ह्यपश्यन्नहमिति स्निहत्यात्मनि कश्चन । न चात्मनि विना प्रेम्णा सुखहेतुषु धावति ॥ यशोविजय, द्वा. द्वात्रिंशिका २५-४,५ । ३. नात्मास्ति स्कंधमात्रं तु कर्मक्लेशाभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ।। आत्मेति नित्यो ध्रुवः स्वरूपतोऽविपरिणामधर्मा कश्चित् पदार्थों नास्ति । कर्मभिः अविद्यादिक्लेशश्च संस्कारमापन्नं पंचस्कंधमात्रमेव, अन्तराभवसन्तानक्रमेण गर्भ प्रविशति । क्षणे क्षणे उत्पद्यमानं विनश्यमानमपि तत् स्कंधपंचकं स्वसन्तानद्वारा प्रदीपकलिकावत एकत्वं बोधयति । अभिधर्मकोश ३-१८ टोका। अमेरिकाके मानसशास्त्रवेत्ता प्रो. विलियम जेम्स ( William James ) ने भी विज्ञान (Consciousness ) को विचारोंका प्रवाह मानते हुए नित्य आत्माके स्थानपर चित्तसन्तति ( Stream of Thought ) को स्वीकार किया है-The unity, the identity, the individuality, and the immateriality that appear in the psychic life are thus accounted for as phenomenal and temporal facts exclusively, and with no need of reference to any more simple or substantial agent than the present Thought or
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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