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स्याद्वादमञ्जरी ( परिशिष्ट )
३०७ अनुमान आदि प्रमाण साधकतम होनेसे करण है, और पदार्थोका हेय-उपादेय रूप ज्ञान होना साध्य होनेसे क्रियारूप है, अतएव प्रमाणका फल प्रमाणसे सर्वथा भिन्न है। बौद्ध इस सिद्धान्तका खण्डन करते हैं। उनका कथन है कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणका स्वरूप पदार्थोंका जानना है, अतएव पदार्थोको जाननेके सिवाय प्रमाणका कोई दूसरा फल नहीं कहा जा सकता, इसलिये प्रमाण और प्रमाणके फलको सर्वथा अभिन्न मानना चाहिये। जिस समय ज्ञान पदार्थोको जानता है, उस समय ज्ञान पदार्थोके आकारका होता है। यही ज्ञानकी प्रमाणता है। तथा ज्ञान पदार्थोके आकारका होकर पदार्थोंको जानता है, यह ज्ञानका फल है। अतएव एक ही ज्ञानको प्रमाण और प्रमाणका फल स्वीकार करना चाहिये । व्यवहारमें भी देखा जाता है कि जो आत्मा प्रमाणसे पदार्थोका ज्ञान करती है, उसे ही फल मिलता है। इसलिये प्रमाण और प्रमाणका फल सर्वथा अभिन्न हैं।
२. क्षणिकवाद-बौद्ध लोग प्रत्येक पदार्थको क्षणिक स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि संसारमें कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु अपने उत्पन्न होनेके दूसरे क्षणमें ही नष्ट हो जाती है, क्योंकि नष्ट होना पदार्थोका स्वभाव है। यदि पदार्थोंका स्वभाव नष्ट होना न माना जाय, तो घड़े और लाठोका संघर्ष होनेपर भी घड़ेका नाश नहीं होना चाहिये । हमें पदार्थ नित्य दिखाई पड़ते हैं, परन्तु यह हमारा भ्रम मात्र है । वास्तवमें प्रत्येक वस्तु प्रत्येक क्षणमें नाश हो रही है। जिस प्रकार दीपककी ज्योतिके प्रतिक्षण बदलते रहनेपर भी समान आकारको ज्ञान-परम्परासे 'यह वही दीपक है' इस प्रकारका ज्ञान होता है, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तुके क्षण-क्षणमें नष्ट होनेपर भी पूर्व और उत्तर क्षणोंमें सदृशता होनेके कारण वस्तुका प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि वस्तुको नित्य माना जाय तो कूटस्थ नित्य वस्तुमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती', और वस्तुमें अर्थक्रिया न होनेसे उसे सत् भी नहीं कहा जा सकता। दसवीं शताब्दिके बौद्ध विद्वान रत्नकीतिने क्षणिकवादकी सिद्धि के लिये 'क्षणभंगसिद्धि' नामक स्वतन्त्र ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथमें रत्नकीतिने शंकर, त्रिलोचन, न्यायभूषण, वाचस्पति आदि विद्वानोंके मतका खण्डन करते हुए अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्तिसे क्षणभंगवादकी सिद्धि की है। शान्तरक्षित आचार्यने तत्त्वसंग्रहमें स्थिरभावपरीक्षा नामक प्रकरणमें भी नित्यवादकी मीमांसा करते हुए क्षणिकवादको सिद्ध किया है। इसके अतिरिक्त, जैन और वैदिक ग्रंथोंमें भी क्षणिकवादका प्रतिपादन मिलता है।
३. अवयववाद-नैयायिक लोग अवयवीको अवयवोंसे भिन्न मानकर उन दोनोंका सम्बन्ध समवायसे स्वीकार करते हैं। परन्तु बौद्धोंका कहना है कि अवयवोंको छोड़कर अवयवी कोई भिन्न वस्तु नहीं है । भ्रमके कारण अवयव ही अवयवी रूप प्रतीत होते हैं । अवयव रूप परमाणु उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाते हैं, इसलिये अवयवोंको छोड़कर अवयवी पृथक् वस्तु नहीं है। जिस समय परस्पर मिश्रित परमाणु ज्ञानसे जाने जाते हैं, उस समय ये परमाणु विस्तृत प्रदेशमें रहनेके कारण स्थूल कहे जाते हैं।
१. जैन लोग भी पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा क्षणिकवाद स्वीकार करते हैं-स्याद्वादिनामपि हि प्रतिक्षणं
नवनवपर्यायपरंपरोत्पत्तिरभिमतैव । तथा च क्षणिकत्वम् । देखिये पीछे, प. १८८ २. देखिये पीछे पृ. २३४ ३. पंडित हरप्रसाद शास्त्री द्वारा विब्लिओथिका इन्डिका कलकत्ता में सम्पादित । ४. देखिये षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्नकी टीका, पृ. २९,३०,४०; चन्द्रप्रभसूरि, प्रमेयरत्नकोष पृ०.३०। ५. न्यायमंजरी; न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका आदि । ६. बौद्धोंके क्षणिकवादकी तुलना फ्रांसके दार्शनिक बर्गसा ( Bergson) के क्षणिकवादके साथ की
जा सकती है। ७. परमाणव एव पररूपदेशपरिहारेणोत्पन्नाः परस्परसहिता अवभासमाना देशवितानवन्तो भासन्ते, वितत.
देशत्वञ्च स्थूलत्वम् । पंडित अशोक, अवयविनिराकरण, पृ. ७९ ।